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छायांकन की विधि

Process Of Cinematography…..एक कहावत है कि अगर कोई भी कार्य बिना सोचे समझे किया जाता है तो उसके परिणाम घातक भी सिद्ध हो सकता हैं। ऐसे में छायांकन जैसे बड़े क्षेत्र में, विशेष कर आज के वर्तमान युग मे जहाँ सिनेमा मनोरंजन के साथ साथ लोगों को शिक्षित करने का भी कार्य कर रहा है, के साथ, त्रुटि हो जाए तो इसका परिणाम विनाशकारी हो सकता है। यह इसलिए क्योंकि सिनेमा को समाज का प्रतिबिंब माना जाता है और इसका जनसंचार का क्षेत्र बहुत ज्यादा विस्तृत है जिसके चलते एक गलती किसी समाज, क्षेत्र, भूखंड के अस्तित्व पर खतरा बन कर उसके अस्तित्व को नष्ट कर सकती है।

किसी फिल्म या मूवी के छायांकन से लेकर उसके अंतिम रूप में पर्दे पर उतरने तक उसे कई घटकों से होकर गुजरना पड़ता है। जिसको अंतिम रूप में पहुँचाने में फ़िल्म के हजारों क्रू मेंमबर, डायरेक्टर और छायाकार अपना सबकुछ लगा देते हैं। तब जाकर किसी फिल्म का निर्माण पूर्ण हो पाता है।

ये सभी कार्य सबसे पहले एक आईडिया से शुरू होते हैं जिसके बाद उसके ऊपर पटकथा लिखी जाती है और फिर प्री प्रोडूक्श , प्रोडक्शन, पोस्ट प्रोडक्शन से और कई रास्तो से गुजरते हुए पर्दे पर अंतिम रूप में उभरते हैं। एक छायांकन के अंतर्गत ऑन स्क्रीन दृश्य तत्व शामिल होते हैं, जिसके अंतर्गत प्रकाश व्यवस्था, फ्रेमिंग, रचना, कैमरा गति , कैमरा कोण, लेंस विकल्प , क्षेत्र की गहराई, जूम फोकस, रंग एक्सपोज़र और निष्पादन शामिल होते हैं।

जिसको लेकर फ़िल्म के डायरेक्टर और छायाकार बहुत ज्यादा सजग रहते हैं ताकि इसमें कोई त्रुटि उत्पन्न न हो और फ़िल्म बनाने का कार्य पूरा हो सके। ये कार्य प्री-प्रोडक्शन में ही पूरा कर लिया जाता है, जिसे हम रेकी करना भी कहते हैं। ऐसा करने पर बड़े स्तर पर गलतियां या चूक होने की गुंजाइश कम हो जाती है।

अब हम छायांकन के विधि(Process Of Cinematography) को समझते हैं। एक उदाहरण के रूप में लें तो, छायांकन की विधि(Process Of Cinematography) घर या बाहर की जाने वाली भगवान(GOD) के पूजा के विधि के समान है।

जिस प्रकार से घर या बाहर कोई पूजा या अनुष्ठान करने से पहले हम पूजा से संबंधित सारे समान को एकत्रित कर लेते हैं और इसी के साथ पूजा का समय, कहाँ पूजा किया जाए, पूजा के बाद खाने में क्या बने और पूजा के दौरान किन लोगों को बुलाया जाए आदि को पहले से ही समझ लिया जाता है। ठीक यही कार्य छायाकार छायांकन के पहले डायरेक्टर के साथ मिलकर करने का प्रयास करता है। जिसका कारण सिनेमा का दृश्य श्रव्य माध्यम का होना है जिससे किसी फिल्म की पहचान होती है।

हाँ, सिनेमा में आवाज एक अन्य कारण है पर आज आधुनिक स्टूडियो और साउंड मिक्सर जैसे उपकरण ने शोर के कारक को काफी हद तक खत्म कर दिया है।

छायांकन से पहले छायाकार अपनाता है ये विधि(Process Of Cinematography)

  1. छायाकार फ़िल्म के लिए डायरेक्टर के साथ एक दृश्य शैली का चुनाव करता है। इसके बाद उसके दृश्य शैली और दृष्टिकोण को निर्धारित करता है। उदाहरण के लिए, एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म में एक छायाकार यह निर्धारित करता है कि किसी शॉट का रिक्रिएशन दोबारा किया जाए या फिर उसके पास मौजूद फ़ोटो पर अधिक भरोसा करे।
  2. छायाकार प्रत्येक शॉट के लिए कैमरा सेटअप स्थापित करते हैं। एक सिनेमेटोग्राफर यह तय करता है कि किस प्रकार के कैमरे, कैमरे लेंस, कैमरा एंगल और कैमरा तकनीक का प्रयोग करे ताकि दृश्य को जीवंत बनाया जा सके। इसके साथ-साथ सिनेमेटोग्राफर स्क्रिप्ट मार्गदर्शक के साथ भी काम करता है और अगर जरूरी हो तो स्थान प्रबंधक को प्रत्येक दृश्य का दायरा बढ़ाने और कैमरे के सहुलियत के अनुसार डिज़ाइन करने को कहता है। यह फ़िल्म के पर्सपेक्टिव बनाए रखने में मदद करता है।
  3. प्रत्येक दृश्य के लिए प्रकाश व्यवस्था को निर्धारित करता है। इसी के साथ छायाकार प्रकाश का सही उपयोग इस रूप में करता है ताकि निर्देशक को उसके सोचे हुए रूप में छायांकन मिल सके। ऐसे में सिनेमेटोग्राफर को इस बात का पता होना चाहिए कि कहानी के वातावरण को समर्थन करने के लिए एक छवि में गहराई, कंट्रास्ट और उसका एक स्केच होना जरूरी है।
  4. छायाकार फ़िल्म शूटिंग होने वाले हर स्थान की पड़ताल करता है ताकि उस स्थान की क्षमता को समझ सके। ऐसे में वह यह भी समझता है कि एक निर्देशक को कौन से दृश्य उत्साहित कर सकते हैं और किस शॉट्स के लिए निर्देशक को मनाया जा सकता है।
  5. फ़िल्म से सम्बंधित हो रही रिहर्षल में भाग लेकर एक सिनेमाटोग्राफर यह और अच्छे से जान सकता है कि किस शॉट के लिए कौन सा शॉट बेहतर होगा। इससे फ़िल्म में अभिनेता के फ्रेम में ब्लॉकिंग को समायोजित करने में आसानी होती हैं।
  6. दिए हुए सभी पॉइंट में निर्देशक और छायाकार के बीच तालमेल होना जरूरी है। इन दोनों के बीच अच्छा तालमेल होने से निर्देशक की दूरदर्शिता भी बढ़ती है। एक अच्छा छायाकार उन आईडिया और अवधारणाओं को निर्देशक के सामने पेश करने का प्रयास करता है जिसपर उसने विचार नहीं किया है।

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