पत्रकारिता, जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, आखिर ऐसा क्या हुआ है कि उसके परिदृश्य पर ही उंगलियां उठने लगी?
पत्रकारिता का तो काम है कि लोगों को राज्य, क्षेत्र, भूखंड पर चल रहे कार्यों और इसके साथ-साथ सरकार और जनता के बीच एक पूल की तरह काम करना। ऐसे में हो रहे भ्रष्टाचार को खत्म करना, देश का मान बढ़ाना मुख्य कार्य है। तो फिर आज क्यों पत्रकारिता के वर्तमान परिदृश्य पर लोग संदेह कर रहे हैं?, क्या संदेश करना जायज है या फिर यह एक छलावा है, आइए विस्तार से इसे जानते हैं …
पत्रकारिता का शुरुआती दौर न तो पत्रकारों के लिए सुगम रहा और न ही अंग्रेजों के लिए अच्छा। ऐसे में एक तरफ पत्रकारों ने अपनी पूरी श्रद्धा के साथ, यहाँ तक कि अपने पत्नी के जेवर और घर को गिरवी रखकर, लोगों के समक्ष अंग्रेज़ों के कुनीतियों और उनके छलावे को आम जनता के समक्ष रखता रहा। हां, पैसे की किल्लत की वजह से ज्यादा तर अखबार अधिक दिनों तक नही चल सके पर अपने छाप को भारत के पत्रकारिता के इतिहास में दर्ज करवा गए। यहाँ उनके लिए पैसे की किल्लत ही एक समस्या नहीं थी बल्कि यहाँ अंग्रेज़ो के गलघोंटू और लाइसेंस प्रणाली जैसे कई कानूनों का उनपर थोपा जाना, उनकी प्रिंटिंग मशीनें ज़ब्त कर लेना, कई पत्रकारों को बिना सबूतों के जेल में डाल देना आदि पर प्रहार करने का भरसक प्रयास किया गया। पर एक चीज थी जिसे वे न बांध सके। वह थी, पत्रकारों के जूनून उनके हौसले जो कि बुलंद थे अपने देश, अपने वतन के लिए।
ऐसे में कुछ पत्रकारों का नाम लेना जरूरी है जिन्होंने अंग्रेज़ो से सीधे टक्कर लेकर अखबार प्रकाशित करने की शुरुआत की थी। वैसे तो आपको पता होगा कि भारत मे सबसे पहले अखबार निकालने वाले पत्रकार कोई भारत का न होकर एक अंग्रेज ही था, जिसे पत्रकारिता के वसूलों से छेड़-छाड़ करना शायद ही पसंद था। नाम था जेम्स अगस्त हिक्की जिसने बंगाल से वर्ष 1780, जनवरी 29 से साप्ताहिक पत्र ‘बंगाल गैजेट’ या कहें तो ‘कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर’ नाम से निकालना शुरू किया। यह अखबार 2 साल के बाद अंग्रेज़ों द्वारा धर(बंद) लिया गया।
बेशक यह अखबार केवल 2 वर्षों तक ही चला हो पर इस पत्र ने एक अलख, उन भारतीय लोगों के मन मे जगा दी, जिसकी उस समय बहुत ज्यादा जरूरत थी। इसके बाद पंडित जुगल किशोर शुक्ल द्वारा वर्ष 1826 में शुरू हुआ। ऐसे में भारतीय हिंदी पत्रकारिता में भारतेंदु मंडल का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा।
इसके आगे गांधी जी के द्वारा सत्याग्रह, यंग इंडिया, नवजीवन जैसे पत्रों का भी प्रकाशन हुआ। इतिहास के पन्नों में ऐसे कई पत्र हैं जिन्हें एक सांचे में समेट पाना बहुत ही कठिन काम है ऐसे में हम विषय की तरफ दोबारा आते हैं।
वर्तमान युग मे पत्रकारिता का क्षेत्र और खासकर टीवी पत्रकारिता का क्षेत्र रेस के घोड़े की तरह हैं, जहाँ लोग केवल जीतने वाले घोड़े पर ही दाव लगाना पसंद करते हैं। ऐसे में टीवी पत्रकारिता में भी TRP उन लोगों की तरह है जिसको लोग सबसे ज्यादा देखना पसंद करते है।
इस संदर्भ में 2020 में रिपब्लिक भारत के द्वारा बार्क के आंकड़ों के साथ हुए छेड़ छाड़ को देख कर समझ सकते हैं और यह भी समझ सकते हैं कि किसी चैनल के लिए एक अच्छी TRP होना कितना जरूरी है। हाँ ये बात अलग है कि बार्क द्वारा लगाए गए रेटिंग मीटर 1 लाख टीवी के अंदर ही फिट हैं ऐसे में 130 करोड़ भारतवासियों के बीच रेटिंग के लिए केवल एक लाख टीवी सेटों का होना थोड़ा आश्चर्य में डालता है! फिलहाल 2020 के बाद बार्क ने रेटिंग सिस्टम को बंद कर दिया था पर अब उसने दोबारा इसे एक संसोधन के साथ शुरू कर दिया है। जहाँ पहले 15+ और 18+ की दो केटेगरी बार्क के द्वारा निर्धारित थी वहीं अब केवल 15+ को ही रेटिंग के लिए रखा गया है।
एक बड़े टीवी चैनल के पत्रकार से बात करते हुए हमें यह पता चला कि जिस समय बार्क ने TRP के आंकड़ों को देना बंद किया, उसके बाद तो न्यूज़रूम में एकदम से शांति का माहौल बन गया था। न किसी चैनल की मॉनिटरिंग की झंझट न किसी चैनल के आगे जाने की झंझट। वह वक्त था, जब तसल्लीबख्श और आराम से सारे कार्यों को बिना बॉस की डांट सुने किया जाता था। वह वक्त भी एक वक्त था।
आपको एक बात से अवगत करा दें कि, अगर आप TRP के दौड़ में बने रहना चाहते हैं तो ये आपकी मर्जी। पर आप TRP के रेस से अपने आप को बाहर करके, निर्भीक पत्रकारिता कर सकते हैं। पूर्णतः यह आपके चैनल के ऊपर है। उदाहरण के रूप में NDTV INDIA ने हाल ही में अपने आप को इस रेस से बाहर कर लिया है।
ये तो बात हो गयी TRP और पत्रकारिता के शुरुआती पहलू की, पर वर्तमान समय को इंटरनेट युग भी कहा जाता है। जहाँ एक क्लिक पर आपके मन पसंद के कंटेंट, न्यूज़ आदि आसानी से प्राप्त हो सकते हैं। ऐसे में टीवी के पत्रकारों के समक्ष कई चुनौतियां आकर सामने खड़ी हो गई हैं।
पहला तो ये की टीवी माध्यम त्वरित माध्यम है, जिसपर तुरंत किसी घटना के घटते ही उसे पहले अपने चैनल पर ब्रेक करने की होड़ लगी रहती है, दूसरा ये कि टीवी पत्रकारिता मुख्यतः वह माध्यम है जो अपने दर्शकों को ध्यान में रखकर अपने कार्यक्रमों का निर्माण करती है और वर्तमान परिदृश्य को अगर देखा जाए तो आज सच्ची पत्रकारिता का नहीं वरन सच्चे दर्शकों का अभाव अवश्य दिखाई देता है, हाँ कुछ पत्रकार इस लूपहोल का अच्छे से फायदा उठाते हैं पर जनाब एक दिन आप टीवी न्यूज चैनल के सामने बैठ कर देखिए और फिर ग्राउंड जीरो पर जाकर देखिए तब आपको समझ मे आएगा कि आखिर में ऐसा क्यों हो रहा है। तीसरी सबसे बड़ी बात है कॉर्पोरेट जगत का टीवी पत्रकारिता में आगमन, जिसने एक प्रकार से पत्रकारों को हीरे के पट्टे में बंधा एक कुत्ता बना दिया है।
अगर आज की जनता इन सब मुद्दों को समझ ले और वह अपना रवैया न्यूज़ चैनलों के समक्ष रख दे। तो मजाल है कि टीवी चैनल आज जैसे अपने मनमाने ढंग से 24 घंटे न्यूज़ या अन्य कंटेंट का प्रसारण कर रहे है वे कर पाएंगे। इसे आप एक उदाहरण से समझे अगर एक पुरे देश की जनता आम खरीदना बंद कर दे तो एक् दिन ऐसा आ सकता है कि लोग आम की खेती छोड़ उस फल या वस्तु की तरफ खेती करने चले जाए जहाँ संबंधित वस्तुओं को लोग पसंद करते हो।
ठीक ऐसे ही अगर टीवी चैनलों के साथ किया जाए तो उसमें भी सुधरने की गुंजाइस पूरी है। पर भारत जैसे देश की एक बड़ी विडंबना यही है कि यहाँ ज्यादा तर लोग अशिक्षित हैं और उससे भी ज्यादा लोग ऐसे हैं जिन्हें अपने चद्दर से ज्यादा दूसरे चद्दर के फटे होने में मजा आता है। ऐसे में मीडिया को दोष देना किसी भी कीमत पर सही नहीं है।
निष्कर्ष
वर्तमान युग मे न तो पत्रकारों की कमी है और न समाचारों की। यह आप के ऊपर निर्धारित है कि आप किस वेग और कैसे समाचारों के साथ अपना मनोरंजन या ज्ञान बढ़ाना चाहते है। इंटरनेट पर आप पल पल की खबर देख सकते हैं पर उनमें से ज्यादातर पर आप विश्वास नहीं कर सकते। परंतु एक अच्छे दर्शक की बढ़ी संख्या के होने पर और जिसे न्यूज़ सेंस का पता है; टीवी पत्रकारिता के ढांचे को पूरी तरह से बदल सकता है। लेकिन इसके लिए हम सब को एक सच्चे दर्शक के रूप में टीवी के सामने आना होगा।
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