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हिंदी सिनेमा और साहित्य को समझने से पहले यह समझना अति आवश्यक है कि, ये दोनों ही कला विधाएं हैं जो अपने माध्यम से समाज को प्रभावित या समाज के प्रतिबिम्ब की तरह काम करती है। आज के युग मे देखें तो सिनेमा और साहित्य अभिव्यक्ति की दो बढ़ी विधाओं के रूप में सामने आयी हैं।(hindi cinema aur sahitya ka sambandh)

बात करें इन दोनों(हिंदी सिनेमा और साहित्य) के संबंध की तो…. (hindi cinema aur sahitya ka sambandh)

साहित्य का विकास तो उस समय से होता आ रहा है जबसे मानव ने जन्म लिया है। वहीं सिनेमा का जन्म हुए अभी केवल 100 से 150 साल के बीच का ही है, फिर भी इन दोनों के मध्य बहुत संबंध है। हम अगर कहें कि सिनेमा की पहली प्रक्रिया ही साहित्य से होकर गुजती है तो गलत न होगा।

इन दोनों ही माध्यमों ने अपने ढंग से समाज को प्रभावित करते हैं। बस इन दोनों में एक ही अंतर है कि इन दोनों विधाओं में एक तरफ सिनेमा को पढ़े लिखे से लेकर अनपढ़ तक समझ व फीडबैक दे सकते हैं तो वहीं साहित्य को केवल पढ़े लिखे लोग ही समझ सकते हैं, बस एक यही डेमेरित को हम छोड़ दें तो दोनों ने ही समाज को अच्छा बनाने और समाज मे हो रही बुराइयों को खत्म करने का प्रयास अपने माध्यमो से किया है। ऐसे में इन्होंने सामाजिक परिवर्तन में अपनी भूमिका का बराबर निर्वहन किया है।(hindi cinema aur sahitya ka sambandh)

वर्ष 1913 भारतीय सिनेमा और भारतीय साहित्य के लिए एक महत्वपूर्ण साल रहा है। 1913 में एक तरफ जहां गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर जी को उनकी महान कृति के ‘गीतांजलि’ के लिए नोबेल पुरस्कार ने नवाजा गया तो वहीं दूसरी ओर भारतीय सिनेमा की नींव रखने वाले दादा साहेब फाल्के ने अपनी फिल्म ने ‘राजा हरिश्चंद्र’ नाम से अपनी फिल्म रिलीज कारी।

जिसके चलते हम कह सकते हैं कि जब साहित्य को संसार भर में ख्याति मिल रही थी उसे पुरस्कृत किया जा रहा था तब सिनेमा अपने जीवित रहने के लिए जमीन की खोज कर रहा था।

परंतु आज ऊपर के दोनों घटनाओं को 120 वर्ष से भी ज्यादा का समय हो रहा है। इन बीते वर्षों में सिनेमा ने अपने आप को बदलते हुए और नए समय, नए रंग-रूप में ढलते हुए भारतीय सिनेमा, मुख्यतः हिंदी सिनेमा ने अपना वैश्विक विस्तार को कर लिया है और आज कला, मनोरंजन और अभिव्यक्ति के एक मुख्य साधन बन चुका है…. और यहीं पर साहित्य के विचारों ने, उसके समाज के नजरिये ने, पुरस्कारों के जालों आदि में फसकर एक संकुचित दायरे में फंस चुका है। ऐसे में बीते इन लगभग 120 वर्षों में साहित्य ने अपने सम्मान को खोया है।

सिनेमा और साहित्य के स्थित

अगर संक्षिप्त में समझे तो एक तरफ सिनेमा ने अपने पहले पग से ही समाज, समाज मे रहने वाले लोग, वहां होने वाले परिवर्तन को बारीकी और अच्छे से समझा और उसी रूप में अपने आप को अपडेट(अद्यतित) करता गया और प्रसिद्ध होता गया। वहीं, साहित्य के क्षेत्र में पुराने राग और पुराने विधाओं पर ही ध्यान दिया गया और उसमें वर्तमान को देख कर कुछ भी परिवर्तन नहीं किया गया। जिसके फलस्वरूप उसकी प्रासंगिकता में कमी आने लगी।(hindi cinema aur sahitya ka sambandh)

ऐसा नहीं है कि शुरुआत में सिनेमा ने साहित्य से अलग होकर अपने जमीन की तलाश की शुरुआत की….

वरन उसने अपने शुरुआती दौर में या कहें अपने युवावस्था में साहित्य के सफल कृतियों पर अपना ध्यान केंद्रित किया था, लेकिन ये एक्सपेरिमेंट सिनेमा के क्षेत्र में ज्यादा सफल नहीं हुई जिसके चलते सिनेमा का लगाव साहित्य जगत से कम होने लगा।

इस लगाव का कम होने का एक मुख्य कारण तो यही था कि जब कोई फ़िल्म साहित्य पर निर्धारित होती है तो उसके समक्ष कुछ बाधाएं भी उत्पन्न हो उठती है। वह बाधा ये है कि, हिंदी के अनेकों साहित्यकार एक ओर तो ये इच्छा रखते हैं कि उनके द्वारा लिखे साहित्य पर फ़िल्म बने तो वहीं दूसरे तरफ वे सिनेमा को दोयम दर्जे का माध्यम मानते हैं जो केवल लेना जानते हैं देना नहीं। यही समस्या आज के समय मे भी काफी हद तक बनी हुई है।(hindi cinema aur sahitya ka sambandh)

प्रेमचंद की कहानी मिल मजदूर पर मोहन भावनानी ने फ़िल्म बनाई थी। परंतु प्रेमचंद को कहानी में बदलाव के साथ फ़िल्म बनाना नागवार लगा। उस फिल्म में व्यावसायिक नजरिये के मूल संवेदना को ही समाप्त कर दिया गया था। एक पत्र में इस फ़िल्म का जिक्र करते हुए प्रेमचंद ने लिखा कि, ‘मजदूर में मैं इतना ज़रा सा आया हूं कि नहीं के बराबर। फ़िल्म में डायरेक्टर ही सबकुछ हैं।’

बाद में विद्रोह होने के कारण यह फ़िल्म पंजाब में ‘गरीब मजदूर’ के नाम से दोबारा रिलीज हुई। इसके बाद भी विभिन्न फ़िल्म कंपनियों और निर्माता निर्देशकों द्वारा प्रेमचंद के द्वारा लिखित सेवासदन, रंगभूमि(1946), त्रिया चरित्र(1941) आदि कृतियों पर फिल्मों का निर्माण किया। पर ये फिल्में बड़े पर्दे पर अपना जादू बिखेरने में पूरी तरह नाकामयाब ही रहीं, ऐसे में प्रेमचंद भी अपने रचनाओं के प्रस्तुतिकरण से हमेशा नाराज ही रहे।

जिंदगी में समझौता

प्रेमचंद ने फ़िल्म नगरी को लेकर एक पत्र लिखते हुए इस बात को माना कि इसमें कई आदर्शवाद का गला दबाना पड़ता है। उन्होंने पत्र में लिखा कि, ‘यह एक बिल्कुल नई दुनिया है। साहित्य से इसका बहुत कम सरोकार है।

उन्हें तो रोमांच कथाएं, सनसनीखेज तस्वीरे चाहिए। अपनी प्रसिद्धि की खतरे में डाले बगैर मैं जितनी दूर तक डायरेक्टरों की इच्छा पूरी कर सकूंगा, उतनी दूर तक करूंगा….. जिंदगी में समझौता करना ही पड़ता है। आदर्शवाद मंहगी चीज है, बाज दफा उसको दबाना पड़ता है।’

सिनेमा के चकाचौंध ने महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद को अपनी तरफ मुम्बई की तरफ खींचा। पर सिनेमा के क्षेत्र में उनके अति आदर्शवादी विषयो के चलते वे सफल नहीं हो पाए और मुम्बई छोड़ वापस वे अपने नगरी आगए।

1936 में मुंशी प्रेमचंद की मृत्यु के बाद भी उनके पत्र में लिखे कथन से यह साफ-साफ स्पष्ट है कि प्रेमचंद बेशक सिनेमा को अपने ख्याति के अनुरूप न मानते हों पर वो अपने आदर्शवाद को दबाकर इस चकाचौंध क्षेत्र में कार्य करने का मन बना रहे थे।

अकेले मुंशी प्रेमचंद ही नही थे जिसे सिनेमा ने अपने तरफ आकर्षित किया हो वरन सिनेमा में कई साहित्यकारों ने आकर अपने भाग्य आजमाए जिसमें से ज्यादातर साहित्यकारों को असफल और हताशा ही हाथ लगी। प्रेमचंद के बाद पंडित बेताब, जोश मलीहाबाद, पंडित सुदर्शन, सदन हँसो मंटो, जावेद अख्तर, राजेन्द्र सिंह बेदी गुलज़ार जैसे नाम मुख्य हैं।

पर इनमें से ज्यादा तर साहित्यकार ज्यादा नहीं चले जिसमे उनका मानना था कि सिनेमा एक व्यावसायिक क्षेत्र है जिसका सिद्धांत लेने में अधिक और देने में कम ही है। इसके साथ उन्हें यह भी समझ मे आया कि सिनेमा त्वरित और सहज लोकप्रियता के लिए रचा जाता है। हाँ, जिसने साहित्य में इस बंधन को पार लिया उसने सिनेमा में एक अच्छा नाम कमाया।

उदाहरण के लिए सत्यजीत रे ने प्रेमचंद के द्वारा लिखी कहानी सतरंज के खिलाड़ी पर इसी नाम से फ़िल्म का निर्माण किया और वह फ़िल्म सफल रही।

सिनेमा क्षेत्र के लिए एक बात प्रसिद्ध है कि सिनेमा में वही सफल हो सकता है जो साहित्य को इस ढंग से पेश करे कि, साहित्य और सिनेमा दोनों का ही पोषण हो सके तभी वह आगे बढ़ सकता है और सत्यजीत रे इन दोनों क्षेत्रों के भलीभांति पिरोना जानते थे जिसके चलते उनके द्वारा बनाई गई ज्यादा तर फिल्में सफल रहीं।

ऐसे ही कमलेश्वर जी ने भी कभी अपने राह पर डिगे नहीं और न ही साहित्यकार होने का कोई व्यर्थ प्रसंग छोड़ा। फ़िल्म जगत को लेकर उनका कहना था कि, ‘मैने अपने-आप को वहाँ मिसफिट नहीं पाया…. मेरे पास वही जुबान थी, जिसकी जरूरत वहाँ है। सच मे अगर यह कहा जाए कि वे सिनेमा की जुबान समझते थे तो इसमें कोई अतिश्योक्ति न होगी, जिसके चलते वे कामयाब रहे। और जिसने सिनेमा को नहीं समझा, वह हाथ मलता ही रहा।

निष्कर्ष

साहित्य पाठ का माध्यम है, जबकि सिनेमा दृश्य-श्रव्य विधान पर आधारित है। इन दोनों की आवश्यकताएं और तकनीकीयाँ भिन्न है। ऐसे में कुछ विधान से जुड़ा हुआ व्यक्ति ही ठीक ढंग से उस विधा को समझ सकता है। ऐसे में एक साहित्यकार तभी सफल हो सकता है जब श्रेष्ठता बोध से मुक्त होकर एक ‘प्रोफेशनल’दृष्टिकोण को लेकर सिनेमा लेखन की ओर बढ़ता है तो ज्यादा चांसेस है कि वह सफल होता है।

गुलजार ने सिनेमा के इस प्रक्रिया को समय रहते ही समझ लिया था, इसलिए एक तरफ उन्होंने अच्छी नज्मों का लेखन किया तो वही दूसरी तरफ ‘बीड़ी जलइले जिगर से पिया’ और कजरारे जैसे आइटम सॉन्ग को लिखने में कोई भी झिझक नही हुई।

ऐसे में वे आज सिनेमा के क्षेत्र में ऊंचे शिखर पर ख्याति के साथ बैठे हुए है। वर्तमान दौर में पुराने साहित्यिक सोच को छोड़ कर नया युग आगे बढ़ रहा है और इस क्षेत्र को अपने कृतियों से संजो रहा है। इनमें डॉ. कुमार विश्वास, शशांक भारतीय, सत्य व्यास, दिव्यप्रकाश दुबे जैसे आदि अन्य साहित्यकार आते हैं।

कुल मिलाकर अंत मे अगर कहा जाए कि हिंदी साहित्य और सिनेमा का इतिहास बेशक परेशानियों और पुराने आदर्शवादी सोच के चलते बिखरा रहा हो, परंतु आज वर्तमान में इन दोनों की ही तस्वीर बदल रही है जो कि इन दोनों के भविष्य के लिए एक अच्छे संकेत की तरफ इशारा करती हैं।

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By Admin

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