पर्यावरण शब्द का निर्माण दो शब्दों से मिलकर हुआ है। परि और आवरण, “परि” जो हमारे चारों ओर है “आवरण” जो हमें चारों ओर से घेरे हुए है,अर्थात पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ होता है चारों ओर से घेरे हुए। पर्यावरण उन सभी भौतिक , रासायनिक एवं जैविक कारकों की समष्टिगत एक इकाई है, जो किसी जीवधारी अथवा परितंत्रीय(Ecosystem) आबादी को प्रभावित करते हैं तथा उनके रूप, जीवन और जीविता को तय करते हैं। सीधे रूप में कहा जाए तो पर्यवरण से तात्पर्य उन सभी वस्तुओं से है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हमें प्रभावित करते हैं।
जे.एस. रॉस के अनुसार:- पर्यावरण या वातावरण वह बाह्य शक्ति है जो हमें प्रभावित करती है।
पर्यावरण के विविध पक्ष
मानव का प्राकृत से बहुत गहरा संबंध है। प्राकृत और वायुमंडल से मिलकर बने पर्यावरण के तत्व जहाँ, मानव को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित करते रहे हैं, वहीं मानव, प्राकृत में विद्यमान प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग अपने हितों के लिए करता आया है। यही नहीं, वह पर्यवरण के प्रभावों को भी समय-समय पर महसूस भी करता आया है। पर्यावरण मानव जगत पर एक सामूहिक प्रभाव डालते आया है, जिसके संदर्भ में हमें कई विद्वानों के मत मिलते रहे हैं।
पर्यावरण के लिए तीन पक्ष विख्यात हैं:- 1) ज्ञानात्मक पक्ष या कहें नियतिवाद पक्ष 2) सुरक्षात्मक पक्ष या सम्भाववाद पक्ष 3) व्यावसायिक पक्ष या समन्वयवाद पक्ष।
1) ज्ञानात्मक पक्ष या नियतिवाद पक्ष :- मानव एक जिज्ञासु प्राणी है जिसे हमेसा अपने आस पास हो रही घटनाओं के बारे में जानने की रुचि होती है। मानव हमेशा प्राकृत में बसे रहस्यों को जानने में उत्सुकता रखता है। शुरुआती चरण में जब लोगों ने पर्यवरण को जानना शुरू किया तब वे पर्यावरण को स्वामी मानते थे। उनके विचार में मानव प्राकृत का दास है और वह मानव का स्थान, विशेषकर पर्यावरण के अनुरूप ही जीवन जीने को प्राथमिकता दी गयी। यही नहीं, प्राकृतिक शक्तियों को देवी-देवताओं के रूप में मानकर उसकी पूजा को प्रचारित किया गया ताकि पर्यावरण का दोहन न हो सके और ऐसे में इसे आध्यात्मिक रूप देकर सुरक्षित करने का प्रयास किया गया। जो आज के वर्तमान युग में भी देखने को मिलता है। उदाहरण के लिए आज भी हिन्दू धर्म मे पीपल के पेड़ को उच्च माना जाता है उसकी पूजा की जाती है और इसी के साथ पीपल का पेड़ काटने से भी लोग डरते हैं। पर यह ज्ञात होना चाहिए कि पीपल का पेड़ हमेसा CO2 लेता है और O2 छोड़ता है। ऐसे में हम कह सकते हैं कि पर्यावरण को बचाए रखने के लिए कितना अग्रणी थे।
2) सुरक्षात्मक पक्ष या सम्भाववाद पक्ष:- प्राचीन तथा मध्ययुग में पर्यावरण अध्ययन का यह पक्ष गौण(minor) रहा है। इस पक्ष ने पर्यवरण के सोच और उसके आचरण दोनों को ही एक अलग नज़रिया दे दिया। मानव अपने बुद्धि, कौशल व ज्ञान के बल पर पर्यवरण के तमाम तत्वों :- वनस्पति, खनिज, मिट्टी, जल तथा अन्य वन्य जीव-जंतुओं का उपयोग अपने जीवन यापन के लिए करने लगा वह अपने आप को सर्वशक्तिमान प्राणी समझने लगा, जिसपर प्राकृत का कोई रोक टोक, अंकुश नही था। वह अपने मर्ज़ी का मालिक था। इस विचारधारा को मानने वाले विद्वान फैब्बरे का मत था कि “सब ओर संभावनाएं हैं, मानव इन संभावनाओं का मालिक है, इस कारण वह इसके उपयोग का हकदार है।” ऐसे में इस मानसिकता ने मानव और प्राकृत के बीच एक खाई पैदा कर दी जिससे पर्यावरण का पतन होना शुरू हो गया। इन संकटों से चिंतित होकर एक बार फिर पर्यावरण के रक्षात्मक पक्ष पर जोर दिया जाने लगा।
3) व्यावसायिक पक्ष या समन्वयवाद पक्ष:- इन दोनों को देखते हुए एक बीच का रास्ता निकाला गया जिसे समन्वयवाद पक्ष कहा गया। इसको व्यावसायिक पक्ष इसलिए भी कहा गया क्योंकि इस समय विकसित देशों में विकास की गति बहुत तेजी से बढ़ रही थी। पर विश्व मे अपने साख को ऊपर बनाए रखने के लिए उन्होंने यह बात कही कि, हमारा विकास प्राकृत का दोहन न करते हुए देश के विकास को बढ़ावा देना है। सीधा कहें तो इस पक्ष के तहत यह बताने का प्रयास किया गया है की मानव पूरी तरह से पर्यावरण का दास नहीं है और अपने बुद्धि अनुसार प्राकृत को कम से कम नुकसान पहुचाये वह अपना कार्य कर सकता है।
पर्यावरण और पत्रकारिता
हाल के दिनों में हमने देखा कि जिस तरह उत्तराखंड में तबाही का मंजर था या हिमाचल प्रदेश में टूरिस्ट के गाड़ियों पर पर्यावरण ने अपने प्रकोप दिखाने के साथ कितनों के जान अपने आँचल में समा लिए और जिस तरह मीडिया ने इन खबरों को दिखाया एक बड़ी चुनौती थी। मीडिया की खबरों में पर्यावरण को लेकर कई सारे पॉजिटिव तो बहुत सारे नेगेटिव पक्ष भी देखने को मिले, लोगों ने उसपर चर्चा भी की, यहाँ हमारा मतलब स्थानीय लोगों और मीडिया दोनों से है।
लेकिन एक बड़ा प्रश्न जरूर है हमारे देश की, कि पर्यावरण से जुड़े मुद्दे खासकर जो पर्वतीय इलाके हैं, जिस तरह का विकास वहाँ हो रहा है, जिस तरह की मंजिल वहाँ नापी जा रही हैं और जिस तरह समाज के सामने नई चुनौतियां आती जा रही हैं। इसके बरख्स हमारा भारतीय मीडिया उन घटनाक्रमो को , वहाँ की स्थितियों को कैसे गौर कर रहा है? यह जानना बहुत आवश्यक है।
जब पर्यावरण को लेकर मीडिया या कहें पत्रकारिता को देखते हैं तो ऐसा लगता है कि बाजारवाद की प्रतिस्पर्धा में आज पर्यावरण कहीं पीछे छूट सा गया है। पर्यावरण को लेकर कुछ-एक चैनल को छोड़ दिया जाए, जो कुछ हद तक पर ज्यादा नहीं, ही ऐसे मुद्दों को उठाते हैं और बचे हुए चैनल की भूमिका कहें तो आग लगने पर पानी डालने वाली है। कहने का तात्पर्य जब तक पर्यावरण की खबर trp के लिए सही, हैडिंग में फिट और न्यूज़ चैनल के सर से पानी न बह जाए तब तक उसे खबर नहीं समझा जाता है।
चाहे लू आजाये, चाहे बाढ़ आ जाए, सूखा पड़ जाए, प्रदूषण की समस्या हो, एक्का दुक्का तथ्यों को छोड़ दें तो अन्य पत्रकारिता विभाग तभी सक्रीय होते हैं जब उन्हें लगता है कि अब उनका लाभ होना निश्चित है और एक उपाय फौरन तलाश लिया जाता है। उदाहरण के तौर पर देंखे तो:- दिल्ली के यमुना नदी में लगभग हर साल हरियाणा के कारखानों से अमोनिया छोड़ दिया जाता है, जिसके चलते दिल्ली में पानी की समस्या उत्पन्न हो जाती है और जब यह संकट ज्यादा बढ़ जाती है तो प्रशासन और मीडिया के लिए ये केंद्र बिंदु बनते हैं। अक्सर साल भर में, दो से तीन बार इस समस्या का सामना करना पड़ता है। कहने का तात्पर्य केवल संकट गहराने पर मीडिया पर्यावरण के मुद्दों को देखती है नही तो किसी अन्य लाभकारी मुद्दे में लगी रहती है।
खैर जहां तक ओजोन परत,जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण जैसे विश्वव्यापी, गंभीर मुद्दों का सवाल है ,हमारा मीडिया उसे बहुत गंभीरता से नहीं लेता।आज के समय में कितने समाचार पत्रों, न्यूज चैनलों और वेबपोर्टल में पर्यावरण बीट है? कितने पर्यावरण पत्रकार हैं? मीडिया में ये सबको पता है कि पर्यावरण पर निवेश करना रिटर्न्स की गारंटी नहीं देता है शायद इसलिए आज पर्यावरण से संबंधित आपदाओं में किसी भी आम पत्रकार को, जरूरत पड़ने पर रिपोर्टिंग के लिए लगाकर, काम चला लिया जाता है। जिसके कारण मीडिया में पर्यावरण बीट के पत्रकार बहुत ही कम हैं।
हम देखते हैं कि बीबीसी जैसे बड़े अंतर्राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल अंटार्कटिका शोध के अभियान पर, अपने पत्रकारों की टीम को कवरेज के लिए भेजता है। लेकिन हमारे यहां यदि कोई एक्का-दुक्का पत्रकार अपनी मेहनत से कोई पर्यावरण संबधी रिपोर्ट तैयार करके लाता है तो, सरकार और समाज के स्तर पर उसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता। केदारनाथ त्रासदी इसका एक बढ़ा उदाहरण है। जिसके आंकड़े आज तक शंका उत्पन्न करते हैं।
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