मैं एक कश्मीरी पंडित हूँ, भारतीयता के भावना का सच्चे मन से विश्वास करने वाला, इस देश का शांतिपूर्ण, अहिंसक, धर्म निरपेक्ष, शिक्षित कानून का आदर करने वाला देश भक्त नागरिक। 19 जनवरी 1990 को, मुझे अपने घर से बेघर कर दिया गया। ये मेरी कहानी है।
वास्तव में हर कश्मीरी पंडित की यही दशा है जो सरकार से इतने लंबे समय के बाद भी आस लगाए बैठा है कि जैसे उसने आर्टिकल 370 को हटाया है वैसे ही एक दिन उनके पलायन की त्रासदी को भी उनसे दूर हटा देगा। उसने सरकार से, न्याय मिलने की आस में 32 साल बिता दिए हैं पर फिर भी, वह इन सब के बावजूद उम्मीद लिए बैठे हैं कि आज नहीं तो कल उन्हें भारत की सरकार और भारत का संविधान इंसाफ दिला कर रहेगा।
19 जनवरी 1990 का वह दिन शायद ही कोई कश्मीरी पंडित अपने जहन से निकाल पाए जिस दिन उन्हें अपने पुरखों के जन्मस्थान को छोड़ कर भागना पड़ा और एक पराए की तरह अपने ही देश मे रहने की जिल्लत को उठाना पड़ा। वास्तव में कश्मीरी पंडित ही नही बल्कि वे सब, जिनके साथ ऐसी रूह कपाने वाली घटना हुई हो उनका हाल भी वही रहा होगा जो कश्मीर में रहने वाले एक मात्र हिन्दू समुदाय कश्मीरी पंडितों के साथ 32 वर्ष पहले हुआ था।
जहाँ इनको, इनके ही घर से, इनके ही क्षेत्र से, इनके ही पित्रों के भूमि से ऐसे अलग कर दिया जैसे शरीर मे लगे मैल को हम अलग कर देते हैं।
असल मे कहा जाए तो कश्मीरी पंडितों को प्रतारणा 1947 से ही किसी न किसी रूप में सहना पड़ा है। फिर भी 1985 तक कोई विशेष लेख, सबूत या किताब देखने को नही मिलती जिसमें द्वेष या निष्कासन जैसे शब्दों या मुद्दों को उकेरा गया हो। यहाँ यह बात समझ लेना चाहिए कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, बिना दोनों पहलू को समझे हम कश्मीर और कश्मीर के पंडितों के दर्द को नही समझ सकते।
तो आइए इस मुद्दे को समझते हैं और समझते हैं कि ऐसा क्या हुआ कि रातों रात कश्मीरी पंडितों को अपने ही स्वदेश से अपने बच्चों, परिवार के साथ भागना पड़ा और ये भी समझना होगा कि ऐसा क्या राजनीतिक या मानसिक परिवर्तन हो गया की पड़ोसी पड़ोसी का ही दुश्मन हो जाए…..?
बशीर भद्र ने एक शेर कहा है कि, “लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में, तुम तरस नहीं खाते…. बस्तियां जलाने में” । ऐसा क्या हो गया जो, किस सोच ने बस्तियों को जलाने पर मजबूर कर दिया, किसने गंगा-जमुना संस्कृति को तोड़ने का प्रयास किया, सब को आज विस्तार से जानेंगे।
सबसे पहले कवि आर. पी. शर्मा द्वारा लिखी हुई कविता “कश्मीर का दर्द” पढ़ते हैं:-

भारत के कश्मीर का संदेश श्री मोदी जी तक पहुंचा दो
उन्नीस सौ नभ्भय (1990) के घाव अभी भी हरे हैं उनको इतना बतला दो
19 जनवरी को दहशत गदों ने ऐसा कोहराम मचाया था
बेइज्जत कर लाखों हिंदुओं को घाटी से भगाया था
मां भारती के मानचित्र को खंडित करने की उन्होंने ठान ली थी
जिसको भाई जान कहते थे उसी भाई ने जान ली थी
बहन बेटीयों की इज्जत लूटी भाइयों पर भी खूब प्रहार किया
और मौन बैठ खादी ने इन सब को स्वीकार किया
न्याय व्यवस्था घायल थी और संविधान भी रोता था
उनके आकाओं के फरमानों पर न जाने क्या-क्या यहाँ होता था
पत्थर खाते सैनिक देख, मैं दुखी होता था
और जलते तिरंगे देख जार जार रोता था
नजर नहीं मिला पाता था शहीदों की मांओं से
शर्मिंदा होता रहता था नई नवेली विधवाओं से
तुम मेरे हो अब तुम मुझको शुद्ध करो
स्वर्ग जैसी पावन भूमि को आतंकियों से मुक्त करो
370 हटाई अब मुझे न कोई गम होगा
घाटी में भी शिक्षा और खुशहाली का मौसम होगा
बेटा बेटी यहां के भी बचेंगे और पढ़ेंगे
अब अच्छे दिन की ओर कश्मीरी भी बढ़ेंगे
वक्त आ चुका है कश्मीरी पंडितों को भी बुलवा दो
और उनके गुनहगारों को फांसी पर चढ़ावा दो
एक भी गद्दार को हक नहीं होगा यहां जीने का
अब उनको भी एहसास कराओ छप्पन इंची सीने का
– कवि आर.पी. शर्मा
कश्मीरी पंडितों के जनवरी 1990 में पलायन से पहले के माहौल को समझना बहुत ही आवश्यक है क्योंकि रातों रात प्रकृति भी अपना भयावह रूप नहीं दिखाती है, वह भी पहले कुछ संकेत देती है…..
1980s का समयकाल
बेशक 1990 का साल लाखों लोगों के रातों रात भागने की दासता बनी, जहाँ पर लोग रुके भी, पर इसके पीछे का सच बहुत ही कड़वा है, जिसे शायद ही कोई पचा सके। वास्तव में कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के लिए समस्या का माहौल वर्ष 1980 यानी 10 वर्ष पहले से ही शुरू हो गया था। जहाँ पर रूस अफगानिस्तान पर चढ़ाई करने के रास्ते पर था तो वहीं अमेरिका रूस को निकालने के पक्ष में था। जिसके चलते अफगानिस्तान के लोगों को मुजाहिदीन बनाया जाने लगा। ये मुजाहिदीन वे लोग थे जो बिना जान की परवाह किए रूस के सैनिकों को मौत के घाट उतारने को तैयार थे।
मुजाहिदीन की तरफ सबसे पहले वे अफगानिस्तानी लोग आकर्षित हुए, जिनसे पहले ही अफगानिस्तान के लोग परेशानी का सामना कर रहे थे। ये लोग क्रूर होने के साथ-साथ निर्दयी भी थे। इनके मन में वहसी पन कूट-कूट कर भरा हुआ था जिसके चलते वे महिलाओं को उठाने(अगवा करने, किडनैप करने), उनके साथ बलात्कार करने, उनको शारीरिक सुख के लिए प्रयोग करने, उनके साथ अपराध करने में कोई शोक या दया की भावना नहीं रखते थे।
और, इनकी ट्रेनिंग पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में होने लगी, जिसके चलते आस-पास के लोग भी इनके संपर्क में आने लगे और वो भी मुजाहिदीन के अंतर्गत ट्रेनिंग लेने लगे। ये लोग जो कश्मीर के थे और मुजाहिदीन से जुड़ गए थे, इनसे कश्मीर की जनता को बहुत समस्या थी। आपको बता दें कि इन लोगों को ट्रेनिंग देने का जिम्मा पाकिस्तान के शासक जनरल ज़िया ने लिया था। यही मुजाहिदीन संगठन कश्मीरी पंडितों के पलायन का कारण बना था। कैसे बना ये आपको आगे पता चलेगा।
1980 से 1987 तक जम्मू कश्मीर के राजनीति में उठा-पटक
फारूक अब्दुल्ला ने वर्ष 1982 में अपने पिता शेख अब्दुल्ला के मृत्यु के बाद कश्मीर में मुख्यमंत्री के पद की शपथ ली। पर 1983 में विधानसभा के चुनाव में फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस ने इंदिरा गांधी के कांग्रेस पार्टी के खिलाफ चुनाव में उतरी और उसने जीत भी हासिल किया, लेकिन यह कड़वाहट 1984 के लोकसभा चुनाव में और कड़ी हो गयी।
जिसके चलते कश्मीर में परिवर्तन का दौर शुरू हो गया। इसके चलते फारूक अब्दुल्ला के जीजा गुलाम मोहम्मद शाह ने नेशनल कॉन्फ्रेंस के 13 विधायकों को तोड़ने में कामयाब रहे और इसके बाद उन्होंने कांग्रेस पार्टी के साथ मिलकर उसके 26 विधायकों की मदद से जम्मू कश्मीर में एक नई सरकार बनाई। इस सत्ता परिवर्तन ने फारूक अब्दुल्ला को एक तरह से सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया।
इस सत्ता परिवर्तन में बेशक कांग्रेस पार्टी ने गुलाम मोहम्मद शाह से मिलकर कश्मीर के सत्ता की बाजी मार ली हो पर इस सत्ता के परिवर्तन को कश्मीर की अवाम किसी भी कीमत पर मानने को तैयार नहीं थी, जिसके कारण भारी मात्रा में घाटी में विरोध प्रदर्शन, धरना शुरू हो गया।
1986 में कश्मीरी पंडितों पर हमले का पहला मामला सामने आया जब अयोध्या में राममंदिर का ताला खोला गया। इस ताले के खुलने के बाद अनंतनाथ में कई कश्मीरी पंडितों और हिन्दू मंदिरों पर हमला किया जाने लगा। मंदिरों और मस्जिदों पर भड़काऊ पोस्टर लगाए जाने लगे। जिसके कारण हिन्दू कर्मचारियों ने डर कर मास कैज़ुअल लीव ले लिया और वे घाटी से रुख़्सद हो गए।
कर्मचारियों के चले जाने के बाद घाटी असुरक्षित हो गयी और माहौल बिगड़ते देख 7 मार्च 1986 को गुलाम मोहम्मद शाह की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया, ऐसे में कश्मीर में पहली बार राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया।
1987 में विधानसभा चुनाव और MUF पार्टी का आगमन,
1987 में विधानसभा के चुनाव कश्मीर में करवाया जाना था। पर चुनाव के ऐन मौके पर एक बदलाव हुआ जिसमे फारूक अब्दुल्ला ने कांग्रेस से हाथ मिला लिया था। इसके बाद घाटी के लोगों के नजरों में गुलाम मोहम्मद शाह के बाद फारूक अब्दुल्ला दूसरे ऐसे नेता बन गए जिन्होंने कांग्रेस पार्टी के आगे अपने घुटने टेक दिए थे और समर्पण कर दिया था। ऐसे में MUF एक मजबूत पार्टी के रूप में सामने आई।
MUF का आगमन
MUF यानी मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट पार्टी का आगमन तब हुआ जब नेशनल कॉन्फ्रेंस पार्टी के फारूक अब्दुल्ला और कांग्रेस पार्टी का गठबंधन हो गया। इस बात को वहाँ की अबाम ने जोरों से विरोध किया और इस विरोध को जो पार्टी सहयोग दे रही थी वह मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट पार्टी थी। इस पार्टी के आ जाने के बाद गठजोड़ सरकार की मुश्किलें और बढ़ गयी थी, जिसे वह केवल अंदाजा ही लगा पा रहे थे।
MUF के आने से कश्मीर में एक जोश आगया था क्योंकि कश्मीर घाटी के लोग किसी को भी वोट देने के लिए तैयार थे बस इस गठबंधन वाले पार्टी को वोट नही देना चाहते थे। इसका फायदा उठाया muf ने, असल मे इसमें ऐसे लोगों की मात्रा ज्यादा थी जो अलगाववादी विचार धारा के थे और इस पार्टी के कई लोग पाकिस्तान के समर्थक थे।
कश्मीर की अमीरा कादिल constituency से MUF के बैनर तले मोहम्मद यूसुफ चुनाव लड़ रहे थे।
चुनाव का नतीजा MUF के उम्मीद से अलग
वर्ष 1987 के विधानसभा चुनाव के नतीजे को देखा जाए तो, वह MUF पार्टी के उम्मीद से अलग रहा क्योंकि MUF पार्टी को उम्मीद थी कि इस विधानसभा के चुनाव में उसकी जीत निश्चित है। पर चुनाव में जितने वाली पार्टी की घोषणा की गई तो उसमें नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन ने 86 फीसद सीटें हासिल की थी। 31 फीसद वोट शेयर मिलने के बावजूद भी MUF को केवल 4 सीटें ही मिली थी।
MUF द्वारा चुनाव में धांधली का विरोध करना
Muf ने विधानसभा चुनाव में कथित धांधली का आरोप लगाया और इसका विरोध किया। Muf ने चुनाव आयोग के समक्ष यह दावा किया कि यह चुनाव निष्पक्ष रूप से नही हुआ है क्योंकि नेशनल कॉन्फ्रेंस के बाहुबलियों ने चुनावों के दौरान आतंकवाद की बागडोर ढीली कर दी थी, जिसके कारण उनके पोलिंग एजेंटों के साथ मार-पीट गाली गलौझ किया गया।
नेशनल कॉन्फ्रेंस के दमनकारी उपायों और डराने-धमकाने के कृत्यों को चुनाव आयोग के संज्ञान में लाने पर बाद वाले कि ओर से कोई प्रक्रिया नहीं हुई। इसने एमयूएफ को आश्वस्त किया कि पूरी चुनाव मशीनरी पक्षपातपूर्ण तरीके से काम कर रही थी। यद्यपि उनके पास चुनाव आयोग की निष्पक्षता में विश्वास खोने के अपने मत थे। मोहम्मद यूसुफ को दंगा भड़काने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें लगभग 20 महीने जेल में कैद कर के रखा गया।
मोहम्मद यूसुफ जब जेल से बाहर आया तो उसने आतंकवाद का रास्ता चुना और यही आगे चलकर हिजबुल मुजाहिद्दीन का सरगना सैयद सलाउद्दीन बनकर सामने आया।
एक बात साफ थी कि इन राजनीतिक प्रतिद्वंदियों में कश्मीरी पंडितों की कोई भी भूमिका नही थी। कश्मीरी पंडित की बमुश्किल 3 फीसद ही आबादी थी, फिर भी राजनीतिक रस्सा कसी में इस समुदाय को बली का बकरा बनाए जाना लगभग तय हो गया था।
JKLF (JAMMU KASHMIR LIBERATION FRONT)
Jklf को वर्ष 1976 के जून के महीने में यूनाइटेड स्टेट के बिरहिंगम में बनाया गया था और इसको कश्मीर में रीवाइव करने वाले थे हामिद शेख, अशफाक बनी, जावेद अहमद मीर और यासीन मलिक। यासीन मलिक वर्ष 1987 में कश्मीर में हुए विधानसभा चुनाव के MUF पार्टी का पोलिंग एजेंट था, जो आगे चलकर JKLF का चीफ भी बना। इन चारों के पहले अक्षर के नाम से HAJY भी बुलाया जाता था।
JKLF का दबदबा 1985 के बाद धीरे धीरे घाटी में होने लगा था और इसी ने घाटी में हथियार उठाने के लिए लोगों को उकसाया था। JKLF का दबदबा इतना था कि खुले में बसे पिंडी-पिंडी कहते हुए चलती थी और ये बसे रावलपिंडी तक जाती थी और यही आम कश्मीरियों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाता था। ऐसे कैंपो में हिंदुओ को काफिर और उन्हें मारना पुण्य का काम कहा जाता था।
1988-89 आते-आते कट्टरवाद कश्मीर में हावी होने लगा
1988 के आते-आते कट्टरवाद हावी होना शुरू हो गया। इस कट्टरवाद के निशाने पर उस समय सिनेमा घर, बार , ब्यूटीपार्लर और वीडियो लाइब्रेरी थी। वहीं 1989 के चुनाव के आड़ में एक तरफ अलगाववादियो ने जहाँ ‘इस्लाम खतरे में है’ का नारा दिया तो वहीं दूसरी तरफ JKLF ने ‘कश्मीर छोड़ो’ का नारा बुलंद करना शुरू कर दिया।
वर्ष 1989 के दिसंबर महीने के आठ तारिख को तत्कालीन जनता दल पार्टी के वी.पी. सिंह की सरकार में गृहमंत्री बने मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबाइया सईद का अपरहरण JKLF के आतंकवादियों ने कर लिया जिसके एवज में उन्होंने 5 लोगों को छोड़ने को कहा। ऐसे में सरकार को न चाहते हुए भी पांच आतंकियों को छोड़ना पड़ा। उस वक्त घाटी में सरकारी नौकरी करने वाले कश्मीरी पंडितों और IB के अधिकारियों जिन्हें मुखबिर भी कहा जाता था, के बारे में यह कहा जाता था कि ये हमेशा उग्रवादियों के निशाने पर बने रहते थे।
उस समय देखा जाए तो पुलिस प्रशासन, जज, हेल्थ सेक्टर, सिविल सर्वेंट में कश्मीरी पंडितों की संख्या अच्छी थी और ऐसे में अलगाववादियों को विवादों को भड़काने का एक मौका मिल गया। अब उन्होंने साफ-साफ धर्म के नाम पर विवादों को भड़काने का रास्ता धूड़ लिया और एक सॉफ्ट टारगेट करना शुरू किया, जिसमे सबको कट्टरपंथी बनाने का प्रयास किया जाने लगा, जहाँ अभी कुछ लोगों को ही कट्टरवाद का पाठ पढ़ाया जा रहा था वहीं अब सबको कट्टरपंथी बनाने का प्रयास किया जाने लगा।
जुलाई से नवंबर 1989 के बीच 70 अपराधियो को जेल से रिहा कर दिया गया था, जिनमे से माना जाता है कि ज्यादातर अपराधी JKLF से मिलकर कश्मीर में तबाही मचाई थी। पर यहाँ एक बात यह गौर करने वाली है कि, इसका जवाब नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार ने कभी नही दिया कि उसने उन्हें रिहा क्यों किया था।
हत्याओं का दौर
14 सितंबर 1989 को भाजपा के नेता पंडित टीका लाल टपलू को कई लोगों के सामने मार दिया था। यह कश्मीरी पंडितों की JKLF द्वारा की गई पहली हत्या थी। और इसके डेढ़ महीने बाद ही रिटायर्ड जज नीलकांत गंजू की हत्या इनके द्वारा कर दी गई। इन्होंने जम्मू लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल भट्ट को मौत की सजा सुनाई थी। इनके वाइफ को भी किडनैप कर लिया था जिसका सुराग कभी नही मिला। इसके बाद वकील प्रेमनाथ को भी बाद में मार दिया था। इन सब हत्याओं की जिम्मेदारी JKLF ने ली थी ।
1990s का दौर
जिस जगह पर कश्मीरी पंडित सदियों से रह रहे थे, उनको घर छोड़ने के लिए सीधे-सीधे कहा जाने लगा। पहले तो आस-पास के लोगो से सपोर्ट किया कि उनको घर छोड़ कर कहीं नहीं जाना है, वे यहाँ सुरक्षित हैं पर बाद में कुछ डर की वजह से और कुछ कौम की भावना के कारण कहने लगे कि आप यहाँ से चले जाइए तभी बेहतर होगा।
क्योंकि उस समय कश्मीरी पंडितों के घरों को चुन-चुन कर जलाया जाने लगा था और उनको मारा जाने लगा था। ऐसा नहीं है कि सिर्फ पंडित ही मरे थे बल्कि इसमें मुसलमान भी मरे थे लेकिन उस समय पंडितों को मारने और उन्हें घाटी से निकालने के लिए इस बात को JKLF ने दबा दिया था।
सोवियत संघ के विघटन के बाद जो नारे लगते थे
जागो जागो, सुबह हुई, रूस ने बाजी हारी है, हिन्द पर लर्जन तारे हैं, अब कश्मीर की बारी है।
हम क्या चाहते हैं, आज़ादी।
आज़ादी का मतलब क्या, ला इलाहा इल्लाह।
अगर कश्मीर में रहना होगा, अल्लाहु अकबर कहना होगा।
ऐ जालिमों, ऐ काफिरों, कश्मीर हमारा है। यहाँ क्या चलेगा? निज़ाम-ए-मुस्तफा। रालिव, गालिव और चालिव यानी हमारे साथ मिल जाओ या मरो और भाग जाओ।
04 जनवरी 1990
04 जनवरी 1990 का वह दिन जब अखबार के जरिए फरमान जारी कर के घाटी छोड़ने को कहा था। इस फरमान को अखबार ‘अफताब’ में हिजबुल मुजाहिदीन ने छपवाया, की सारे पंडित कश्मीर की घाटी को छोड़ दें, नहीं तो अंजाम बुरा होगा। इसी को अखबार अल-सफा ने दोबारा छापा। चौराहों और मस्जिदों में लाउड स्पीकर लगा कर कहा जाने लगा कि पंडितों यहाँ से चले जाओ, नही तो बुरा होगा।
इसके बाद लोगों द्वारा रेप और हत्याएं ज्यादा की जाने लगी। अब नारे में भी परिवर्तन आ गया जहाँ पहले कश्मीरी पंडित महिलाएं सम्मान की दृष्टि से देखी जाती थी वही अब देखने का नजरिया बदल गया था। उनका नारा था:-
“पंडितों, यहाँ से भाग जाओ, पर अपनी औरतों को यहीं छोड़ जाओ”- अपि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटने सान (हमें पाकिस्तान चाहिए, पंडितों के बगैर, पर उनकी औरतों के साथ)।
सरकार के दांव-पेंच इस गुत्थी को सुलझाने के लिए
- 19 जनवरी 1990 को जगमोहन को फिर से जम्मू-कश्मीर का गवर्नर नियुक्त किया गया। ये 1984 से 1989 तक जम्मू और कश्मीर के गवर्नर रह चुके थे।
- फारूक अब्दुल्ला ने इस फैंसले के खिलाफ अपने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और वे इंग्लैंड चले गए।
- जगमोहन की नियुक्ति कश्मीर के अलगाववादीयो के लिए आखों की किरकिरी बन गयी। इनके नियुक्ति के बाद कश्मीरी पंडितों पर हमले और तेज कर दिए गए।
कश्मीरी पंडित उस रात को कयामत की रात की तरह मानते हैं, जहाँ उनके घरों को जलाया जा रहा था, उन्हें मारा जा रहा था, उनके बेटियों बहनों को अगवा करके उनका सामुहिक बलात्कार किया जा रहा था और हवस पूरा हो जाने पर मार दिया जा रहा था। वहीं दूसरी तरफ जवाहर टनल से अनगिनत कश्मीरी पंडित विस्थापित हो रहे थे और ये पलायन उन्हें मजबूरन अपने बेटियों बहुओं की सुरक्षा के लिए, अपने अस्मिता को बचाये रखने के लिए करना पड़ा। जवाहरटनल एक पुल है जो जम्मू को कश्मीर से जोड़ने का काम करता है।
कश्मीर घाटी से विस्थापित कश्मीरी हिन्दू पंडितों ने पहले जम्मू और आस पास के क्षेत्रों में रहना शुरू किया। जहां एक तिरपाल में 10-10 लोग एक परिवार के रहे। न तो शौचालय की व्यवस्था , न आधारभूत वस्तुओं की व्यवस्था। बस ट्रकों के तरपाल में छुपकर , बसों और किराए की टैक्सियों में छुपकर इन तिरपालों में रहने को मजबूर थे। इन तिरपालों में ज्यादातर मौते सांप के काटने से और रही कसर जून की गर्मी ने पूरी कर दी।
फिर बाद में धीरे-धीरे देश के अन्य कोनो में भी रोजी रोटी के लिए अपना बसेरा बनाना शुरू कर दिया। इन्तेजार में उस घड़ी का जब इन कातिलों को सजा मिलेगी और बेखौफ ये अपने घर वापस जा पाएंगे। और फिर उन गलियों में घूम पाएंगे, जहाँ इनके हस्ते खेलते परिवार ने कई पीढ़ियां देखी हैं।
सर्वे और डेटा
कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अनुसार, जनवरी 1990 में घाटी के भीतर 75,343 परिवार थे। 1990 और 1992 के बीच 70,000 से ज्यादा परिवारों ने घाटी को छोड़ दिया। एक अनुमान है कि आतंकियों ने 1990 से 2011 के बीच 399 कश्मीरी पंडितों की हत्या की। पिछले 30 सालों के दौरान घाटी में बमुश्किल 800 हिंदू परिवार बचे हैं।
सरकारी आकड़ो और मीडिया के रिपोर्ट्स के अनुसार कश्मीर छोड़ने वाले कश्मीरी पंडितों की संख्या ढाई से साढ़े चार लाख के बीच आंकी जाती है।
1990 से 97 के बीच लगभग 800 बच्चे मनोवैज्ञानिक रोग से ग्रसित पाए गए।
11 जून 1999 को मानवाधिकार आयोग ने अपने एक फैंसले में कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार को genocide की श्रेणी में रखा है।

19 जनवरी के बाद भी कश्मीरी पंडितों पर हमला जारी है
- 13 फरवरी 1990:- दूरदर्शन श्रीनगर के निदेशक, लासा कॉल की हत्या
- 01 मार्च 1990:- रेडियो कश्मीर के सहायक स्टेशन P.N. हान्दू की हत्या
- जुलाई 1990:- डॉ. शशी रानी को उनके कर्ण नगर स्थित घर मे बंद कर घर मे आग लगा कर उनकी हत्या
- अगस्त 1990:- बबली रैना का उनके घर वालों के सामने रेप और फिर गोली मारकर हत्या। आदि ऐसे कई मामले हैं।
परिणाम
कश्मीरी पंडित के जाने के बाद उनके घर कश्मीर घाटी में सुनसान पड़े रहे। बदमाशों ने पहले ही घरेलू सामान, फर्नीचर, बरतन, एक्सेसरीज, इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स, छोटे पुस्तकालय, कागजात, फाइलें और दस्तावेज लूट लिए थे। बिजली और सेनेटरी फिटिंग को बाहर निकाला गया, छीन लिया गया और बेच दिया गया।
ज्यादातर मामलों में तो इन घरों के दरवाजे-खिड़कियां भी हटा दिए गए और चोरी कर ली गई। घनी आबादी वाले क्षेत्रों में न होने पर नंगे ढांचों में आग लगा दी जाती थी। बड़ी संख्या में घर और संपत्ति संकट में बिक्री पर चली गई। स्थानीय लोगों ने दुकानों पर कब्जा कर लिया, हालांकि उनमें से कुछ ने मालिक को कुछ पैसे दिए। गांवों में, जलाए गए पंडितों के घरों के खंडहरों को पकड़ लिया गया और राजस्व रिकॉर्ड में मुस्लिम बंदोबस्ती (अवकाफ) संपत्ति के रूप में दिखाया गया।
अगर कोई पंडित किसी तरह अपनी संपत्ति बेच पाता, तो उसे इसकी कम कीमत से ही संतोष करना पड़ा। पंडितों के मंदिरों और श्मशान घाटों की ज़मीन-जायदाद को बड़े पैमाने पर तोड़-फोड़ कर हड़प लिया गया। जिससे कश्मीर की घाटी की जातीय सफाई पूरी हो गई थी।
निष्कर्ष
कश्मीर घाटी धर्मनिरपेक्ष भारतीय संघ के भीतर एक धार्मिक इस्लामिक जगह बन गई है। कश्मीर घाटी के लोग, सौ प्रतिशत मुस्लिम आबादी (कुछ नगण्य अल्पसंख्यकों को छोड़कर, जिनकी संख्या 1% से कम है) के साथ, तेजी से व्यापक सुन्नी मुस्लिम दुनिया के साथ अपनी पहचान बना रहे हैं। कश्मीर घाटी में एक व्यवहार्य यानी संतुलित अर्थव्यवस्था नहीं है और यह जिसके चलते यह किसी न किसी रूप में नई दिल्ली से दिए गए वित्तीय सहायता पर निर्भर है।
हालांकि, राज्य सरकार आमतौर पर इन प्राप्तियों के लिए कोई लेखा-जोखा देने को तैयार नहीं होती है, जिसके परिणामस्वरूप कोई जवाबदेही नहीं होती है और इससे भ्रष्टाचार भी होता है। कश्मीर घाटी के राजनीतिक नेतृत्व के कई सदस्य, जिनमें कश्मीरी अलगाववादी भी शामिल हैं, ज्यादातर द्विपक्षीय हैं और उनके भारत-समर्थक या पाकिस्तान-समर्थक प्रमाण-पत्र, प्रदान की गई धनराशि की मात्रा के अधीन हैं।
कश्मीरी पंडितों की कश्मीर घाटी में वापसी घाटी में बहुसंख्यक समुदाय की सद्भावना पर निर्भर है। कश्मीर घाटी के नेतृत्व में अब न तो यह संभव है और न ही इसे समझने के लिए पर्याप्त ज्ञान है कि, अन्य धर्मों के लोगों के साथ सद्भाव में रहना कितना महत्वपूर्ण है और कितना सुरक्षित है। अब कश्मीरी पंडितों को यह समझना चाहिए कि सात शताब्दियों तक उन्होंने जो बेड़ियाँ पहनी थीं, वे हमेशा के लिए टूट चुकी है और उनके पंख उन्हें नई भूमि की ओर ले जाने चाहिए।
REFERENCE:-
- WITH THE HELP OF SHRIYA TRISAL
- https://en.m.wikipedia.org/wiki/Exodus_of_Kashmiri_Hindus
- https://www.thelallantop.com/tehkhana/story-of-19-january-kashmiri-pandits-exodus-day/
- https://www.efsas.org/publications/study-papers/the-exodus-of-kashmiri-pandits/
- https://navbharattimes.indiatimes.com/india/19-january-1990-the-night-exodus-of-kashmiri-hindus-began/articleshow/86860157.cms
READ MORE
- महात्मा गांधी के प्रयोगों में लियो टॉलस्टॉय की भूमिका
- जॉन एलिया(JOHN ELIA): मेरे कमरे का क्या बयां करू, यहाँ खून थूका गया है शरारत में
- प्राथमिक चिकित्सा(First Aid) क्या है?
- हार्ट अटैक क्यों आता है? इससे बचने के क्या उपाय हो सकते हैं? यहां जानें सबकुछ
- पोस्टल बैलेट या डाक मत पत्र क्या होता है कौन करता है इसका प्रयोग?
You must be logged in to post a comment.