स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता और भारत के वीर सपूत सुभाषचंद्र बोस, जिनके अंदर अपने वतन के लिए, अपने वतन के लोगों के लिए जितना आदर था उतना ही द्वेष और क्रोध उन गोरों के लिए था, जिसने भारत देश पर अपना शासन बैठा रखा था।
नेताजी के कांग्रेस में रहते हुए और बाद में जापान जाने के बाद भी नेताजी हमेशा अंग्रेज़ो के दांत खट्टे करने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे। शायद यही कारण है कि उन्हें अंग्रेजी हुकूमत ज्यादातर कारावास में ही देखना पसंद करती थी ताकि वे चैन से अपना शासन चला संके। पर, नेताजी तो नेताजी हैं उन्हें कब कौन रोक पाया है और खास कर तब, जब उनके अंदर अपने वतन के लिए देशभक्ति का खून दौर रहा हो। नेताजी भारत माता के उन वीरसपूतो में से एक हैं, जिनके लिए अपने देश मे गुमनामी रूप में जीना अभिमान और गर्व की बात थी पर अंग्रेज़ी हुकूमत उन्हें सांप की तरह डंक मारती थी। ऐसे वीरसपूतो का कर्ज जो भारत पर है, वो शायद ही कभी चुकाया जा सके।
ऐसे में नेताजी के जन्मदिन के 125वी एनीवर्सरी पर भारत के प्रधानमंत्री ने उन्हें याद करते हुए इंडिया गेट पर विशाल प्रतिमा लगाने की बात कही। और आगे कहा कि “जिन्होंने भारत की धरती पर पहली आज़ाद सरकार को स्थापित किया था, हमारे उन नेताजी की भव्य प्रतिमा आज डिजिटल स्वरूप में इंडिया गेट के समीप स्थापित हो रहा है। जल्द ही इस होलोग्राम प्रतिमा के स्थान पर ग्रेनाइट की विशाल प्रतिमा भी लगेगी।” हम आपको बता दें कि ग्रेनाइट की इस प्रतिमा का आयाम 28 फ़ीट लंबा और 6 फ़ीट चौड़ा होगा। और प्रतिमा को उसी स्थान पर स्थापित किया जाएगा जहाँ 1968 तक जार्ज पंचम की प्रतिमा स्थापित थी।
नेताजी जी के जन्म दिन को पराक्रम दिवस के रूप में मनाने का शुभारंभ भी एक साल पहले 23 जनवरी को किया गया था। आपको बता दें कि इस कार्यक्रम को आयोजन इसलिए भी शुरू किया गया क्योंकि रिपब्लिक डे के कार्यक्रम पहले 24 जनवरी को शुरू होता था ऐसे में नेताजी द्वारा किये गए कार्यक्रमों को देश के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए और नेताजी को उनका सम्मान दिलाने के लिए शुरू किया गया।
स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता, सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक, ओडिशा में हुआ था और ये शिक्षित और सम्पन परिवार से संबंधित हैं। इनके माता जी का नाम श्री मति प्रभावती देवी और पिता का नाम जानकीनाथ बोस था। नेताजी अपने माता-पिता के 14 संतानों में से 9वीं संतान थे। सुभाष चंद्र जी के पिता जानकीनाथ जी उस समय के एक प्रसिद्ध वकील थे और माता उत्तरी कलकत्ता के परंपरावादी दत्त परिवार की बेटी थी ऐसे में परिवार का पालनपोषण अच्छे ढंग से हुआ था।
आपको बता दें कि पहले जानकीनाथ जी सरकारी वकील थे और उनके इस पेशे से कई लोग प्रभावित भी थे। ऐसे में उन्होंने निजी प्रैक्टिस भी शुरू कर दी थी और वे कांग्रेस के अधिवेशनों में भी जाते थे। इन्हें रायबहादुर का खिताब भी अंग्रेज़ो द्वारा दिया गया था।
नेताजी अपने सभी भाइयों और बहनों में से शरदचंद्र को ज्यादा मानते थे।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस बचपन से ही पढ़ाई में एक मेधावी छात्र थे और हमेशा अपनी क्लास में अव्वल आते थे। उनके शुरुआती शिक्षा की बात करें तो उन्होंने अपने प्राइमरी की पढ़ाई कटक के प्रोटेस्टेड यूरोपीय स्कूल से पूरी की। इसके बाद 1909 में उन्होंने रेवेनशा कोलोजियेत स्कूल में एडमिशन ले लिया।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर अपने प्रिंसिपल बेनीमाधव दास के व्यक्तित्व और जीवनशैली का बहुत ज्यादा प्रभाव नेताजी के ऊपर पड़ा था और इसी के साथ स्वामी विवेकानंद जी के साहित्य का भी इन्होंने पूरा अध्ययन कर लिया था। इसके बाद सुभाष चंद्र बोस ने मैट्रिक परीक्षा में अपनी मेहनत और लगन से दूसरा स्थान प्राप्त किया।
इसके बाद नेताजी ने 1911 में प्रसीडेंसी कॉलेज में एडमिशन लिया था लेकिन अध्यापकों और छात्रों के बीच भारत विरोधी टिप्पड़ियों को लेकर झगड़ा हो गया। जिसके बाद उन्हें एक साल के लिए कॉलेज से निकाल दिया। इसके बाद 1918 में स्कोटिश चर्च कॉलेज से उन्होंने दर्शनशास्त्र में स्नातक की डिग्री हासिल की थी।
इसके बाद अपने माता-पिता के कहने पर भारतीय प्रशासनिक सेवा (इंडियन सिविल सर्विस) की तैयारी करने के लिए बोस इंग्लैंड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय चले गए। उस समय अंग्रेज़ी हुकूमत के दौरान भारत वासियों के लिए सिविल सर्विस में जाना बहुत ही कठिन हुआ करता था परंतु नेताजी ने अपने शिक्षा, तारतम्यता और विषय के प्रति अडिगता के साथ 1920 में चौथा स्थान प्राप्त किया था।
लेकिन भारत के लिए उनके नशों में दौड़ने वाला खून उन्हें हमेशा अपने देश के प्रति और उसपर होने वाले अत्याचार को याद दिलाता रहा। ऐसे में 1921 में भारत मे बढ़ती राजनीतिक गतिविधियों का समाचार और वहाँ हो रही घटनाएं भी उनके पास तक पहुँच रही थी। वैसे भी वो सरकारी नौकरी करना गोरी हुकूमत के सामने झुकना मानते थे ऐसे में असहयोग आंदोलन, जलियांवाला बाग हत्याकांड की खबरों ने उन्हें दुख से भर दिया और उन्होंने अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली और शीघ्र ही अपने देश, अपने माँ भारत माता के गोद मे आ गए।
सुभाष चंद्र बोस के अंदर बचपन से ही देश प्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी ऐसे में वो इंग्लैंड से आने के बाद गांधी जी के संपर्क में आए और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए। सुभाष चंद्र बोस महात्मा गांधी के अहिंसा के विचारों से सहमत नहीं थे। वास्तव में महात्मा गांधी उदार दल का नेतृत्व करते थे, जबकि सुभाष चंद्र बोस जोशीले क्रांतिकारी युवा नेता थे। महात्मा गांधी के विचार और बोस के विचार सामान्यतः भिन्न-भिन्न थे पर अंत मे इन दोनों का मकसद एक ही था, भारत को आज़ाद करवाना। इसलिए दोनों ही लोग दोनों को आदर भाव से देखते थे, क्योंकि गाँधी जी और बोस में मतभेद तो था पर मनभेद नहीं। हम यह भी देखते हैं कि गांधी जी को सबसे पहले राष्ट्रपिता कहने वाले नेता बोस ही थे। वहीं गांधी जी ने उन्हें देशभक्तों का देशभक्त कहकर पुकारा था।
जहाँ एक तरफ गांधी जी अहिंसात्मक आंदोलन को सर्वोच्च मानते थे वही बोस जी का कहना था कि आजादी प्राप्त करने के लिए अहिंसात्मक आंदोलन ही पर्याप्त नहीं हैं और इसी के साथ उन्होंने शसस्त्र प्रतिरोध की वकालत की थी।
शुरुआत में नेताजी जब कांग्रेस में आए तो उस समय असहयोग आंदोलन चल रहा था ऐसे में इस संग्राम को विजयी बनाने के लिए सुभाष बाबू ने पहला कदम समाचार पत्र ‘स्वराज’ को शुरू करके उठाया और इसके अलावा बाबू ने बंगाल प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के लिए प्रचार प्रसार का काम भी किया।
इसके बाद गांधी जी के निर्देश पर उन्होंने देशबंधु चितरंजन दास के साथ काम करना शुरू किया। चितरंजन दास के मार्गदर्शन और सहयोग से, नेताजी सुभाष चंद्र बोस में राष्ट्रवाद की भावना विकसित हुई और इसके बाद उन्हें अखिल भारतीय युवा कांग्रेस की अध्यक्षता सौंपी गई। उन्होंने 1923 में बंगाल राज्य में कांग्रेस के लिए सचिव के पद पर भी काम किया।
उनकी कामयाबी और देश के प्रति उनकी निष्ठा और आदर को देख कर उन्हें ‘फॉरवर्ड’ अखबार का संपादक नियुक्त कर दिया गया। हम आपको बता दें कि इस अखबार को चितरंजन दास द्वारा स्थापित किया गया था। इसके साथ सुभाष बाबू ने कलकत्ता नगर निगम के सीईओ पद पर भी आसीन रहे।
सुभाष बाबू का आज़ादी के लिए भारतीय संघर्ष में राष्ट्रवादी नजरिये और योगदान ने अंग्रेज़ो के आंखों में किरकिरी मचा रखी थी ऐसे में बाबू जी का अस्तित्व अंग्रेज़ो के लिए अच्छा नही रहता था जिसके कारण उन्हें 1925 में मांडले में जेल भेज दिया गया था।
सुभाष चंद्र बोस 1927 को जेल से बाहर आ गए जिसके बाद उन्होंने अपने राजनैतिक कैरियर को एक आधार देकर विकसित करना शुरू किया।
1928 में जब साइमन कमीशन आया तब कांग्रेस से इसका पूरी तरह से विरोध किया। और इसी समय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। जहाँ सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस पार्टी के महासचिव के पद को सुरक्षित कर लिया और गुलाम भारत को अंग्रेज़ो के चंगुल से आज़ाद कराने की लड़ाई में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ काम करना शुरू कर दिया।
उस समय साइमन कमीशन के आने के दौरान जहाँ गांधी जी पूर्ण स्वराज के मांग से सहमत नहीं थे, वहीं सुभास और पंडित जी पूर्ण स्वराज की मांग से पीछे किसी भी कीमत पर आना नहीं चाहते थे। पर अंत मे गाँधी जी के कहने पर यह तय किया गया कि अंग्रेज सरकार को डोमिनियन स्टैट्स देने के लिए एक वर्ष का समय दिया जाए। अगर अंग्रेज़ सरकार ने एक साल में उनकी यह माँग नहीं मानी तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग करेगी। परंतु अंग्रेज़ सरकार के कान में जू भी नहीं रेंगा जिसको देखते हुए 1930 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन जवाहरलाल नेहरू के अध्यक्षता में लाहौर में हुआ और वहाँ तय किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाएगा।
सुभाषचंद्र बोस अपने कामों से लोगों पर अपना प्रभाव छोड़ रहे थे इसलिए जेल से छूटने के तीन साल बाद उन्हें कलकत्ता का मेयर चुना गया।
26 जनवरी 1931 को कोलकाता में राष्ट्र ध्वज फहराकर सुभाष एक बड़े मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे तभी पुलिस ने उनपर लाठी चलाया और उन्हें घायल कर जेल में कैद कर दिया। जब सुभाष जेल में थे तब गांधी जी ने अंग्रेज़ सरकार से समझौता किया और सब कैदियों को रिहा करवा लिया। परंतु अंग्रेज़ो ने भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों को रिहा करने से साफ इंकार कर दिया। सुभाष का मानना था कि गांधी जी अंग्रेज़ो से किये गए समझौते को खत्म कर दें लेकिन गांधी जी अपने वादों को लेकर अडिग रहे। वहीं दूसरी तरफ अंग्रेज़ भी अपने बात पर डटे रहे जिसके चलते भगत सिंह और उनके साथियों को फाँसी की सजा मुकर्रर कर दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाना सुभाष के लिए बहुत बड़ी छटी थी जिसके कारण वे गांधी जी को और कांग्रेस सरकार को दोषी मानते थे। नेताजी को अपने क्रांतिकारी जीवन के दौरान लगभग 11 बार जेल जाना पड़ा था।
इसके बाद उन्होंने 1930 के दशक के मध्य में , बेनिटो मुसोलिनी समेत पूरे यूरोप की यात्रा की।
सुभाष चंद्र बोस ने 1937 में अपने सेक्रेटरी और ऑस्ट्रियन युवती एमिली से शादी की थी। उन दोनों की एक अनीता नाम की एक बेटी भी हुई जो वर्तमान में जर्मनी में सपरिवार रहती है।
जब सुभाषचंद्र बोस यूरोप घूम रहे थे और अपने केंद्र स्थापित कर रहे थे तब अंग्रेज़ी हुकूमत ने उनपर देश मे आने पर पाबंदी लगा दी। पर इस पाबंदी के बावजूद भी वे भारत आए और जिसके कारण उन्हें जेल में जाना पड़ा। जब 1937 के चुनावों के बाद कांग्रेस पार्टी 7 राज्यों में सत्ता में आई तब बोस बाबू को जेल से रिहा किया गया। इसके कुछ समय बाद बोस कांग्रेस के हरिपुरा के अधिवेशन(1938)में अध्यक्ष चुने गए, और इस कार्यकाल में उन्होंने ‘राष्ट्रीय योजना समिति’ का गठन किया। यह नीति गांधीवादी आर्थिक विचारों के अनुकूल नहीं थी।
1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में उन्हें दोबारा अध्यक्ष चुना गया, इस बार सुभाष का मुकाबला पट्टाभि सीतारमैया से था। सीतारमैया को गांधी जी का पूर्ण समर्थन प्राप्त था। इसके बावजूद सुभाष बाबू लगभग 203 मतों से चुनाव जीत गए। गांधी जी ने इसे अपने हार के रूप में देखा। सुभाष के अध्यक्ष चुने जाने पर गांधी जी ने कहा कि बोस की जीत मेरी हार है और ऐसा लगने लगा कि वे कांग्रेस वर्किंग कमिटी से त्यागपत्र दे देंगे। उन्होंने अपने साथियों से कह दिया कि अगर वे बोस के तरीकों से राज़ी नही है तो वे कांग्रेस से हट सकते हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने अपना इस्तीफा दे दिया। जिनमे जवाहरलाल नेहरू तटस्थ बने रहे और अकेले शरदबाबू सुभाष के पक्ष में रहे।
आपको बता दें कि जब नेताजी ने कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में नामांकन जीता था, उस समय उनके नामांकन से महात्मा गांधी बिल्कुल भी खुश नहीं थे, यहाँ तक कि उन्होंने बोस के प्रसीडेंसी के लिए भी विरोध किया था। जबकि देखा जाए तो बोस द्वारा किये गए कार्य स्वराज प्राप्त करने के लिए ही किये गए थे। ऐसे में बोस बाबू ने अपना कैबिनेट बनाने के साथ साथ कांग्रेस के अंदर मतभेदों का सामना भी करना पड़ा था और यही कारण है कि अध्यक्ष पद के इस्तीफे के बाद उनकी प्रसीडेंसी भी ज्यादा समय तक नही रह सकी क्योकि उनकी विश्वास प्रणाली कांग्रेस के समिति से बिल्कुल उलट थी।
1939 का वार्षिक अधिवेशन जब कांग्रेस का त्रिपुरी में हुआ तब नेता जी की तबियत बहुत ज्यादा खराब थी लेकिन वे इस अधिवेशन में स्ट्रेचर पर लेटकर आए थे। इस अधिवेशन में गांधी जी स्वयं उपस्थित नहीं थे और उनके साथियों का सहयोग सुभाष को नहीं था। अधिवेशन के बाद सुभाष बाबू ने समझौते की बहुत कोशिश की पर गांधी जी और उनके साथियों ने उनकी बात पर कोई ध्यान नही दिया। आखिर मे परेशान होकर उन्होंने 1939, अप्रैल 29 को अपने अध्यक्ष पद से कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया।
कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद बोस बाबू ने 1939, मई 3 को कांग्रेस के अंदर ही फॉरवर्ड ब्लॉक नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद बोस को ही पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। जिसके बाद फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप मे एक स्वतंत्र पार्टी बन गई।
द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले ही फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतंत्रता संग्राम को और अधिक तीव्र करने के लिए जन जागृति शुरू की और इसी के साथ उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व से बिना सलाह लिए भारत की तरफ से युध्द करने के लिए वायसराय लार्ड लिनलिथगो के फैसले के विरोध में सामूहिक नागरिक अवज्ञा की वकालत की। उनके इस फैसले की वजह से फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओ को गिरफ्तार कर लिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय नेताजी जेल में निष्क्रिय नहीं रहना चाहते थे। ऐसे में सरकार को उन्हें रिहा करने पर, मजबूर करने के लिए बोस बाबू ने जेल में ही आमरण अनशन शुरू कर दिया। हालात खराब होते देख मजबूरन अंग्रेज़ी हुकूमत को उन्हें आज़ाद करना पड़ा। पर अंग्रेज़ सरकार यह नही चाहती थी कि बोस खुले में घूमे और परेशानी का कारण बने ऐसे में उन्हें उनके घर मे नजरबंद कर दिया गया।
नेताजी इस समय के दौरान कुल 7 दिन जेल में और 40 दिन घर मे गिरफ्तार रहे और 41 वे दिन वे इस ग्रह कारावास से अंग्रेज़ो को चकमा देकर जनवरी 1941 में फुर्र हो गए।
गृह गिरफ्तारी के 41वे दिन जर्मनी जाने के लिए बोस बाबू ने मौलवी का वेष धारण किया और अपने भतीजे शिशिर कुमार बोस की सहायता से , वो अपने घर से भाग निकलने में कामयाब रहे। बोस बाबू ने कहा था कि अगर उनके भागने की खबर 4 से 5 दिन के लिए छिपा लिया जाए तो उन्हें दूसरे देश मे जाने से कोई नहीं रोक पायेगा।
उनका मानना था कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है और उस समय अंग्रेज़ जर्मनी और भारत दोनों पर कहर बरपा रहे थे, इसलिए वो घर से भागने के बाद इटेलियन पासपोर्ट से ऑरलैंडो मैजोटा नाम से अफगानिस्तान, सोवियत संघ, मास्को और रोम होते हुए जर्मनी पहुँचे।
हालांकि, बोस ने ब्रिटिश शासकों का विरोध किया था लेकिन वे ब्रिटिश सरकार के सुव्यवस्थित और अनुशासित रवैये से प्रभावित भी थे।
एडम वॉन ट्रॉट ज़ू के मार्गदर्शन में सुभाष चंद्र बोस ने भारत के विशेष ब्यूरो की स्थापना जनवरी 1942 में की, जिसने जर्मन प्रायोजित आज़ाद हिंद रेडियो पर प्रसारण किया। बोस बाबू ने बर्लिन में फ्री इंडिया सेंटर की स्थापना की वहीं फ्री इंडिया लीजीयन के लिए लगभग 3000 भारतीय कैदी ने साइन अप किया था। जर्मनी का युद्ध मे पतन और जर्मन सेना की आखिरी वापसी से सुभाष चंद्र बोस को इस बात की आशंका पहले ही हो गई थी कि अब जर्मन सेना भारत से अंग्रेज़ो को बाहर भगाने में मददगार साबित नहीं होगी। इसके बाद वे वहाँ से 1943 में सिंगापुर की तरफ रवाना हो गए।
सुभाष चंद्र बोस ने वर्ष 1943 में जर्मनी छोड़ दिया। जिसके बाद वे पहले तो जापान और फिर सिंगापुर पहुँचे। वहां उनकी मुलाकात ‘आज़ाद हिंद फौज’ के स्थापक कैप्टन मोहन सिंह से हुई, जहाँ उन्होंने ‘आज़ाद हिंद फ़ौज’ की कमान संभाली। उस वक़्त रास बिहारी बोस ‘आज़ाद हिंद फ़ौज’ के नेता थे। उन्होंने 4 जुलाई 1943 को सिंगापुर के कैथेय भवन में आज़ाद हिंद फ़ौज की कमान सुभाष बोस को थमा दी और 6 जुलाई 1943 को नेताजी ने INA की कमान संभाली। जिसके बाद उन्होंने आज़ाद हिंद फौज का पुनर्गठन किया। महिलाओं के लिए रानी झांसी रेजिमेंट का भी गठन किया जिसकी, लक्ष्मी सहगल कैप्टन बनी।
‘आज़ाद हिन्द सरकार’ देश के बाहर अविभाजित भारत सरकार थी। जिसके पास खुद का बैंक, खुद की मुद्रा और खुद का डाक टिकट और गुप्तचर तंत्र की व्यवस्था थी। सुभाष बाबू ने सर्वोच्च सेनापति के हैशियत से भारत सरकार की स्थायी सरकार बनाई। इसके बाद जापान ने अंडमान निकोबार द्वीपसमूह को सुभाष बोस के आज़ाद हिंद सरकार को दे दिया। उन द्वीपों पर बोस गए और उनका नामकरण भी किया जिसमें अंडमान का नाम शहीद द्वीप और निकोबार का नाम स्वराज द्वीप रखा।
सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिन्द सरकार को कई देशों के सरकार की मान्यता प्राप्त थी। जिसमें जर्मनी, जापान, फिलीपींस जैसे देश शामिल थे। कई देशों में आज़ाद हिन्द के दूतावास भी थे।
इसके बाद 21 अक्टूबर 1943 को ‘आज़ाद हिंद सरकार’ की स्थापना की। जिसके बाद सबसे बड़ी समस्या यह उत्पन्न हुई कि यह जो आज़ादी की लड़ाई लड़ी जा रही है उसका श्रेय किसको जाएगा। जिसका निवारण करते हुए 23 अक्टूबर 1943 को ‘आज़ाद हिंद फौज’ की स्थापना की गई। इस संगठन के प्रतीक चिन्ह पर एक झंडे पर दहाड़ते हुए बाघ का चित्र बना होता था। नेताजी अपनी आज़ाद हिंद फौज के साथ 4 जुलाई 1944 को बर्मा पहुचे। यही पर उन्होंने अपना प्रसिद्ध नारा, “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा” दिया।
सेना, आज़ाद हिंद फौज के मुख्य कमांडर नेताजी के साथ, ब्रिटिश राज से देश को मुक्त करने के लिए भारत की तरफ बढ़े। बर्मा मोर्चे पर अपनी पहली प्रतिबद्धता के साथ, सेना ने अंग्रेजों के खिलाफ प्रतिस्पर्धा लड़ाई लड़ी और आखिरकार इम्फाल, मणिपुर के मैदान भारतीय ध्वज फहराने में सफल रहे। हालांकि , राष्ट्रमंडल बलों के अचानक हमले ने जापानी और जर्मन सेना को अचंभे में डाल दिया और सुभाष चंद्र बोस का राजनीतिक हिन्द फौज को प्रभावी राजनीतिक इकाई बनने के सपने को चूर-चूर कर दिया।
ऐसा माना जाता है कि 18 अगस्त 1945 में एक विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु ताईवान में हो गयी थी परंतु उस दुर्घटना का कोई साक्ष्य नहीं मिल सका है। सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु आज भी विवाद का विषय बना हुआ है। इस बात पर भी विवाद है कि नेताजी की मृत्यु हुई भी थी या नहीं।
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This post was last modified on 18th January 2023 7:31 pm
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