गांधीवादी विचारधारा में भगत सिंह कहां चूकते हैं….Written by Vishek Gour
29 मार्च का दिन और 1931 का साल। कराची की सरजमीं पर कांग्रेस अधिवेशन की शुरुआत होने को थी। इस अधिवेशन की अध्यक्षता का ज़िम्मा सरदार वल्लभ भाई पटेल को सौंपा गया। लोकप्रिय होते गांधी, कांग्रेस के पॉपुलर नेता नेहरू और हिंदुस्तान को भविष्य में एक सूत्र में पिरोने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे नेता इस अधिवेशन में शामिल हुए। यह अधिवेशन इरविन गांधी समझौते या दिल्ली समझौते को स्वीकृति प्रदान करने के लिए आयोजित किया गया था।
ख़ैर, समझौता, समझौते के अनुबंध और सियासी दांवपेंच से परे 29 मार्च से ठीक 6 दिन पहले हिंदुस्तान की आज़ादी के लिए हिंसक संघर्ष को चरम पर ले जाने वाले शहीद-ए-आज़म भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को यह कहकर कि तुम लोगों ने लाहौर को लेकर षड्यंत्र रचा है, इसलिए तुम्हें फांसी की सज़ा सुनाई जाती है। लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दे दी गई।
भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के हिंसावादी आज़ादी के संघर्ष को लेकर गांधी की निष्क्रियता की आलोचना कराची अधिवेशन में एक गम्भीर नाराज़गी के रूप में प्रकट हुई। कहना यह था कि गांधी चाहते तो भगत सिंह समेत राजगुरु और सुखदेव को बचा सकते थे। कारण? क्योंकि गांधी ने अपनी अहिंसा, सत्यनिष्ठता और शांति की दृढ़ता से ब्रिटिश सरकार को कमजोर और प्रभावित कर दिया था। ऐसा क्यों हुआ कि अहिंसा, सत्यनिष्ठता और शांति जैसे मानवीय मूल्य जिन्हें संघर्ष और प्रतिकार के रूप में कमजोर और निष्क्रिय विरोध की संज्ञा दी जाती है। उससे गांधी ने सैन्य, प्रशासनिक सुदृढ़ता और कूटनीतिक विशेषताओं वाले ब्रिटिश सरकार को लगभग कमजोर करना शुरू कर दिया था।
उपरोक्त कथन को कराची अधिवेशन से ठीक पहले एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में गांधी के ही शब्दों से ठीक ठीक समझा जा सकता है। गांधी के यह शब्द भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी को लेकर कुछ इस प्रकार से थे, “युवक समझने की कोशिश करेंगे कि मेरा और उनका लक्ष्य एक ही है। सिर्फ मेरा रास्ता उनसे अलग है। मुझे जरा भी संदेह नहीं है कि वक्त के साथ उन्हें अपनी गलती का अहसास होगा। वैसे भगत सिंह की बहादुरी और त्याग के आगे किसी का भी सिर झुक जाएगा लेकिन मैं एक ज्यादा बड़ी बहादुरी की उम्मीद करता हूँ और ऐसा करते हुए मेरा इरादा अपने युवा मित्रों को बिल्कुल भी भड़काने का नहीं है। बल्कि मैं एक ऐसी बहादुरी की कल्पना करता हूँ जो किसी दूसरे को नुकसान पहुँचाने की बजाए बिना सूली पर चढ़ने को तैयार हो।”
गांधी के इस वक्तव्य की विवेचना करें तो मुख्य रूप से दो बातें सामने आती हैं। पहली यह कि गांधी की दूरदृष्टि की कोई सानी नहीं है। इस कथन को गांधी की ही लिखित उनकी पहली पुस्तक हिन्द स्वराज में लिखित तथ्यों और विचारों से परखा जा सकता है। जब गांधी हिन्द स्वराज का अनुवाद कर रहे थे तो उसके प्रसंग में उनके राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले ने हिन्द स्वराज को लेकर कहा कि “इस रचना को पढ़ने वाले रचनाकार को पागल की संज्ञा अवश्य देंगे।” गोपाल कृष्ण गोखले के ऐसा कहने के पीछे का कारण हिन्द स्वराज में लिखित उन सन्दर्भों से है जो मानवजाति को आत्मसात करना चाहिए लेकिन औद्योगिकीकरण, मशीनीकरण और परस्पर होड़ की स्थितियों ने मनुष्यता को लील दिया है। अस्तु भगत सिंह के संदर्भ में गांधी का कथन हिंदुस्तान की आज़ादी की भविष्य की संभावनाओं को लेकर चलता है। जो कि ईंट के बदले पत्थर के जवाब से बिल्कुल भी फलीभूत नहीं हो सकता था।
वहीं दूसरी बात यह सामने आती है कि गांधी भगत सिंह के विचारों में आज़ादी की ललक और मनुष्यता की उत्कंठा से भलीभांति परिचित थे लेकिन इसके क्रियान्वयन में उस उग्र संघर्ष को देखते थे जिसकी आयु और प्रभाव क्षणिक एवं हिंसक है। जिससे आज़ादी की लंबी लड़ाई में मानवीय संवेदना की नींव डगमगा जाती है। हालांकि भगत सिंह और गांधी के विचारों में जो अंतर है वह लगभग क्रियान्वयन का ही है। इसलिए गांधी ने सूली पर चढ़ने की बात को लेकर सम्मान की स्थिति कहा लेकिन मानवीय हिंसा की कड़ी आलोचना भी की है।
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