पिता को पत्र

नाम:- पिता को पत्र

लेखक:- फ्रांत्स काफ़्का

अनुवाद:- महेश दत्त

प्रकाशक:- राधाकृष्ण पेपरबैक्स

प्रथम संस्करण:-1999

श्रेणी:- पत्र

पिता को पत्र:-

तकरीबन सालभर पहले मैं फ्रांत्स काफ़्का से रूबरू उनकी उत्कृष्ट रचना द ट्रायल के माध्यम से हुआ। द ट्रायल पढ़ते हुए मुझे सबसे रोचक यह बात प्रतीत हुई कि आखिर किसी उपन्यास में कथानक से भी अधिक महत्वपूर्ण पात्र और परिस्थितियां भी हो सकती हैं। द ट्रायल पढ़कर मैं निराशा की स्थिति से गुजरने लगा। ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि द ट्रायल में उपजी परिस्थितियों को मैं अपने आस पास मूर्त रूप में देख रहा था। यहीं से मेरे भीतर काफ़्का के बारे में और जानने की तीव्र आकांक्षा ने जन्म लिया।

अमूमन हम किसी लेखक को दो माध्यमों से जानते हैं, पहला वह लेखन जो उक्त लेखक ने खुद ही लिखा हो; इस तरह के लेखन में लेखक तथ्यात्मकता, तार्किकता, कल्पनाशीलता और अनुभव के आधार पर अपने लेखन में विधमान होता है, और दूसरा वह लेखन जिसकी रचना अन्य लोगों ने की होती है; यह रचना साक्षात्कार, डायरी लेखन (उक्त लेखक के दिनचर्यागत तत्व) और संस्मरण।

काफ़्का को जानने के क्रम में ही फिर मैंने गुस्ताव जैनुक की पुस्तक “काफ़्का के संस्मरण पढ़ा।” काफ़्का को लेकर गुस्ताव जैनुक ने जिस तरह से लिखा है, वह पढ़कर “पिता को पत्र” में काफ़्का द्वारा लिखिति बातें गहराई से समझ आती हैं। गुस्ताव जैनुक लिखते हैं कि “जब एक दफे काफ़्का को मेरे पिताजी मेरी कविताओं को दिखाने के लिए घर लेकर आये तो मुझे बेहद खुशी हुई; खुशी इस बात की हुई क्योंकि काफ़्का मेटामोरफ़ोसिस के लेखक हैं और अब वह मेरे घर आने वाले हैं। यह कितनी बड़ी और सौभाग्य की बात है।

हालांकि काफ़्का और गुस्ताव जैनुक के बीच बातचीत से यह पता चलता है कि काफ़्का लेखन को लेकर एक भिन्न दृष्टिकोण रखते हैं; काफ़्का के लिए लेखन कोई बड़ी बात नहीं लगती है। काफ़्का के लिए लेखन एक छिपने और एकांत के आश्रय में मुखर होने का महज़ एक ज़रिया है। काफ़्का एक बेहद ही सम्मानजनक और धनाढ्य परिवार में जन्मे थे।

उनके अलावा घर में उनकी दो बहनें भी थी। काफ़्का के पास वह सभी सुख सुविधाएं उपलब्ध थी; जिन्हें एक बेहतरीन जीवन जीने के लिए आवश्यक माना जाता है। लेकिन व्यक्ति के व्यक्तित्व को मुखर होने के लिए जिस परिवेश की काफ़्का को दरकार थी; वह परिवेश काफ़्का को कभी नहीं मिला। काफ़्का का सम्पूर्ण जीवन विषाक्त की विभीषिका में जलता रहा।

काफ़्का के आंतरिक अभिव्यक्ति के मुखर न होने के पीछे के कारणों में सबसे प्रमुख कारण उनके खुद के पिता थे। पिता के बाद अन्य कारणों में दफ्तर और ब्यूरोक्रेसी शामिल हैं। काफ़्का बचपन से ही पिता की सख्ती और अति अनुशासनिकता से बेहद बंधे बंधे रहते थे। पिता की सख्ती और नकेल कसने की आदत से काफ़्का का व्यक्तित्व फूहड़ होने लगा। काफ़्का के फूहड़ व्यक्तित्व में नैराश्य, अति भय, अनिश्चितता और रोपित अनुशासन मुख्य रूप से शामिल था। काफ़्का इन्ही सभी बातों और इससे जुड़ी घटनाओं को लेकर अपने पिता को पत्र लिखते हैं।

पिता को पत्र में मूलरूप से काफ़्का ने जो शिकायती भाव प्रस्तुत किया है; वह इस पत्र की आत्मा है। किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व के सत्व को दरकिनार करते हुए, अगर हम व्यवहारिकता और जीवन की चाहना को देखें तो ऐसा बहुत ही कम मामलों में पाया जाता है कि कोई व्यक्ति दूसरों की गलतियों को उन्हें बताते हुए इस बात की गुंजाइश रखे कि उक्त सन्दर्भ में मेरी जो प्रतिक्रिया थी वह भी गलत थी और इसके साथ ही इस बात की भी संभावना को लेकर भी विचार करे कि हो सकता है कि आपके कृत्य में आप सही हों और मेरे कृत्य में मैं; परन्तु इस पूरी बातचीत या प्रक्रिया में किसी के व्यक्तित्व को ही मार देना किस हद तक सही है?

काफ़्का के व्यक्तित्व को उनके पिता ने मार डाला और इतनी बुरी तरह से मारा कि काफ़्का का व्यक्तित्व वास्तविक दुनिया में फिर से जीवित नहीं हो पाया, लेकिन काफ़्का बचने के लिए, छिपने के लिए या यूं कह लो कि अपनी परिस्थितियों को एक अभिव्यक्ति का माध्यम देने के लिए रास्ते तलाशने लगें तो उन्हें लिखने से बेहतर कोई और रास्ता नहीं समझ आया।

जैसा कि मैंने शुरुआत में काफ़्का की रचना द ट्रायल का ज़िक्र किया था। इस रचना की पृष्ठभूमि काफ़्का के दैनिक जीवन से बहुत मेल खाती है। इसके बाद काफ़्का की कालजयी कहानी मेटामोरफ़ोसिस की बात करें तो इसे काफ़्का की आत्मकथात्मक कहानी भी कहा जा सकता है। और उसके बाद द जजमेंट की बात करें तो यह रचना भी काफ़्का के जीवन के भिन्न भिन्न हिस्सों को उजागर करती है।

पिता को पत्र में काफ़्का ने पिता से खाने के लिए बैठने और उसके दौरान बनने वाली परिस्थिति, बोलने को लेकर होने वाली बातचीत, पढ़ने को लेकर बहसें और बचपन के उन दिनों की कई विभत्स घटनाओं को लेकर अपना पक्ष प्रस्तुत किया है। हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं है कि काफ़्का के पिता काफ़्का को वह बनाने पर आमादा थे; जो काफ़्का कभी नहीं बन पाया, लेकिन इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि काफ़्का के इस रूप को उनके पिता ने ही उजागर किया है; जो कि खुदबखुद काफ़्का इस पत्र में स्वीकार करते हैं।

इस पत्र को पढ़कर महसूस होने वाला काफ़्का का गुस्सा भी बेहद नाजुक है। काफ़्का पिता से शिकायत तो करते हैं लेकिन पत्र को पढ़ते हुए ऐसा नहीं लगता है कि काफ़्का के शिकायतिभाव में जड़ता है, बल्कि यह पत्र पुत्र और पिता के बीच उस स्थिति को बेहद ही मार्मिकता से व्यक्त करता है; जिस स्थिति से अमूमन हम गुजरते हैं।

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By Vishek

Writer, Translator

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