महात्मा गांधी और इमैनुअल कान्ट का निरपेक्ष आदेश का सिद्धांत
महात्मा गांधी ….अगर मैं कहूँ कि हम जिस भी व्यक्ति को आदर्श मानते हैं हम उससे बहुत दूर हो जाते हैं, वहीं हम जिस व्यक्ति को महज़ एक मनुष्य के रूप में जानते हैं; जिसमें मनुष्यता की उत्कृष्टता भी है और पतन भी तो ऐसे में हम उस व्यक्ति के बेहद निकट हो जाते हैं। हम जब भी महात्मा गांधी के बारे में बातचीत करते हैं या उन्हें पढ़ते हैं तो हमारे भीतर या तो एक उच्च आदर्श का भाव उत्पन्न होता है या तो हम उन्हें एकदम नीच कोटि का व्यक्ति करार कर देते हैं।
हालांकि जो सत्य है वह उत्कृष्टता और पतन के बीच के संतुलन में व्याप्त होता है। ऐसे में अगर महात्मा गांधी को मनुष्यता की दृष्टि से देखा जाए तो वह न ही आदर्श हैं और न ही कोई नीच व्यक्ति, बल्कि गांधी वह आम व्यक्ति हैं जो यह जानते थे कि मनुष्य में नीचता और उत्कृष्टता दोनों ही व्याप्त हैं। हालांकि जब गांधी इस बात को समझते थे तो वह यह भी समझते थे कि विकास की अवधारणा बहिर्मुखी नहीं बल्कि अंतर्मुखी होनी चाहिए।
अस्तु इसलिए उन्होंने हिन्द स्वराज में विकास की पुरजोर भर्त्सना की है। और वहीं आंतरिक विकास के क्रम में विचारों के विकास को लेकर हिन्द स्वराज में ही यह भी कहा है कि “अगर मेरे आज के विचार मेरे कल के विचार से उत्कृष्ट हैं तो मुझे पूर्व के विचारों का त्याग करने और आज के विचारों को आत्मसात करने में कोई हिचक नहीं होगी।
जब भी हम महात्मा गांधी के बारे में सुनते या फिर पढ़ते हैं तो सत्य, अहिंसा और प्रेम की एक खूबसूरत व्यक्तित्व की छवि हमारे मन में बनने लगती है। हालांकि देखा जाए तो सत्य, अहिंसा और प्रेम के मूल्यों को हमारे आसपास अनेकों लोग हैं जो आत्मसात किये हुए हैं, ऐसे में गांधी क्यों एक आदर्श और प्रतिमान के रूप में दिखाई देते हैं? गांधी द्वारा आत्मसात किये गए मूल्य; सत्य, अहिंसा और प्रेम कोई गांधी के मूल्य थोड़ी न हैं, बल्कि यह तो वह व्यक्तित्व के अभिन्न अंग हैं जिन्हें जानना होता है और जिनका निरन्तर ही अभ्यास करना होता है। फिर ऐसी क्या बात है जो गांधी को अलग बनाती है?
उपरोक्त सवाल का अगर मैं उत्तर व्यवहारिक रूप से दूं तो प्रेम, अहिंसा और सत्य के मूल्यों का निरन्तर अभ्यास हो सकता है। वहीं इसका उत्तर दर्शन से दूं तो जर्मनी के महान दार्शनिक इमैनुअल कान्ट का निरपेक्ष आदेश का सिद्धांत हो सकता है; जो यह कहता है कि सत्य, अहिंसा और प्रेम परिस्थितिजन्य नहीं हो सकते हैं। अर्थात यह मूल्य किसी भी परिस्थिति में एक समान रहेगें। प्रेम, सत्य और अहिंसा के मूल्य जीवन में किसी भी परिस्थिति और घटनाक्रम में निरपेक्ष आदेश के सिद्धांत के अनुसार कार्य करते हैं। इन्हें मनुष्य अपनी सुविधा या भिन्न भिन्न परिस्थितियों के अनुरूप बदल नहीं सकता है।
महात्मा गांधी का जीवन प्रयोगशाला के रूप में विधमान है। गांधी जीवन के जिस भी अवस्था, घटना या परिस्थिति में अपने क्रियाओं को लेकर चेतन हुए होंगे, उसी के साथ ही जीवन की प्रयोगशाला में उन्होंने प्रयोगों को क्रियान्वित करना शुरू कर दिया होगा। इस बात की पुष्टि उनकी आत्मकथा बखूबी करती है। हालांकि यहां यह प्रश्न उठता है कि गांधी के प्रयोगात्मक क्रियाओं में निरंतरता का दृष्टिकोण कैसे प्रबल हुआ होगा?
ऐसे में अगर मैं गांधी के ही द्वारा लिखित “एक हिन्दू को एक पत्र” की प्रस्तावना का ज़िक्र करूं तो उक्त प्रश्न के उत्तर को जाना जा सकता है।
रूस के अद्वितीय लेखक लियो टॉलस्टॉय जिन्हें सन्त की संज्ञा दी जाती है, उनके द्वारा लिखित “एक हिन्दू को एक पत्र” की गुजराती भाषा के संस्करण की प्रस्तावना में गांधी लिखते हैं कि “इसमें कोई संदेह नहीं है कि टॉलस्टॉय जो कुछ भी उपदेश देते हैं, उसमें कुछ भी नया नहीं है, लेकिन पुरातन सत्य को जिस प्रकार वह प्रस्तुत करते हैं वह बेहद ही हृदयस्पर्शी और अनुकरणीय होता है। टॉलस्टॉय जो तर्क प्रस्तुत करते हैं वह अकाट्य हैं। और इसमें भी महत्वपूर्ण यह है कि जो उपदेश वह दूसरों को देते हैं उनका वह व्यक्तिगत रूप से अभ्यास करने का प्रयत्न भी करते हैं।
गांधी जब प्रस्तावना में उपरोक्त बात लिखते हैं तो ऐसे में यह सटीकता से समझा जा सकता है कि गांधी ने आखिर क्यों अपने जीवन को प्रयोगशाला में तब्दील कर लिया और उसमें भी क्यों प्रयोगात्मक क्रियाकलापों की निरंतरता जीवनपर्यंत जारी रखा। गांधी ने जिन मूल्यों को आत्मसात किया और उन्हें घटनाओं, परिस्थितियों और व्यवधानों के बावजूद निरन्तर निरपेक्ष आदेश के सिद्धांत के अनुरूप आत्मसात किये रहे।
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