Happy Navaratri...हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार नवदुर्गा में, माता दुर्गा और माता पार्वती के नौ रूपों को एक साथ जोड़कर कहा जाता है। हर देवी के अलग-अलग वाहन हैं, अस्त्र-सस्त्र हैं परंतु ये सब एक हैं। ऐसे में नवरात्र के दिनों में आदिशक्ति दुर्गा के 9 रूपों का पूजन किया जाता है और माता जी के इन नौ रूपों को ‘नवदुर्गा’ के नाम से जाना जाता है।
दुर्गा सप्तशती ग्रंथ के अंतर्गत देवी कवच स्त्रोत में निम्नांकित श्लोक में नवदुर्गा के नाम क्रमशः दिए गए हैं:-
प्रथम शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रम्हचारिणी। तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्।। पंचमं स्कन्दमातेती षष्ठं कात्यायनीति च। सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमं।। नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः। उक्तन्येतानि नामानि ब्रम्हाणैव महात्मना।।
हिन्दू मान्यतों के अनुसार 9 दिन का बहुत ही ज्यादा महत्व है। पहला हमारे शरीर में हर नौ दिन में परिवर्तन होता रहता है, इन परिवर्तनों को जानने और आन्तरिक चेतना को जगाने के लिए ये 9 दिन का बहुत महत्व है।
दूसरा ये की जिस समय नवरात्र प्रारम्भ होता है, उस समय दो ऋतुओं का मिलन होता रहता है। यह बात स्पष्ट है कि ऋतुओं का हमारे जीवन, चिंतन एवं धर्म मे बहुत महत्व रहा है, ऐसे में हमारे ज्ञानी ऋषियों-मुनियों ने बड़े हो सोच-विचार के बाद इनके मिलन को नवरात्रि का नाम दिया। तीसरा यह की, यह वैज्ञानिक मान्यता है कि आप अगर एक साल में कम से कम 18 दिन का अन्न त्याग करते हैं तो आपका स्वास्थ्य पूरे वर्ष अच्छा रहेगा। चौथा ये कि, माता वैष्णव देवी ने नौ दिनों तक एक गुफा में घोर साधना किया था और दसवें दिन भैरव का गला काट दिया था।
पांचवा यह कि माता दुर्गा का 9 दिन तक महिषासुर से घोर युद्ध हुआ जिसमें माता जी ने महिषासुर का वध कर दिया, जिसके याद में हम आज भी विजयादशमी का पर्व धूम धाम से मनाते हैं। छतां यह कि अंको में देखा जाए तो 9 अंक पूर्ण है, 9 के बाद कोई अंक नहीं आता, वैसे ही ग्रहों में 9 ग्रहों को माना गया है, जिसके चलते साधना भी 9 दिन की उपयुक्त मानी गयी है। सातवां यह कि माता के नौ रूप है, ऐसे में नवरात्रि 9 दिन की होती है।
उपवास का सीधा-सा अर्थ लें तो त्याग करना है। हिन्दू धर्म मे ऐसे कई उदाहरण हैं जिसमें उपवास से बड़े-बड़े अप्रतिम कारनामे किये गए हैं। असल मे उपवास एक बहुत ही विस्तृत शब्द है, जिसको जितना खीचेंगे उतना ज्यादा ये उतने अर्थों में आपके समक्ष आता रहेगा। कहने का तात्पर्य आप इसे व्रत से तो जोड़ कर देख सकते हैं पर असल में इसके अर्थ अलग हैं।
जहाँ व्रत ही तप कहा जाता है जिसमें मानसिक विकारों को हटाने का प्रयास किया जाता है। तो उपवास में देखा जाए शारीरिक क्रियाओं पर ध्यान दिया जाता है। मानसिक और शारीरिक, दोनों ही तरह का संयम होना नवरात्रि में बहुत आवश्यक है अन्यथा नवरात्रि का व्रत सफल नहीं होता है। आओ जानते हैं नवरात्रि के 10 नियम।
- नवरात्रि का उपवास करते हुए स्त्रीसंग शयन वर्जित माना गया है।
- उपवास करने वाले को इन नौ दिनों में किसी भी प्रकार से क्रोध न करने को कहा गया है। वैसे क्रोध कभी भी नहीं करना चाहिए पर आज के, लोगों के क्रियाकलापों को देख कर अगर वे यह 9 दिन भी कर ले तो बहुत बड़ी बात है।
- न बुरा कहें, न बुरा देखें और न बुरा सुनें।
- अगर पर्यावरण सुद्ध हो तो ज्यादातर बीमारियां वैसे भी दूर भाग जाएंगी, ऐसे में पवित्रता का ध्यान रखें।
- महिलाओं या कन्याओं का किसी भी प्रकार से या किसी भी रूप, समय या अंतराल में अपमान न करें।
- नवरात्रि के दौरान रसोपवास, फलोपवास, दुग्धोपवास, लघु उपवास, अधोपवास और पूर्णोपवास किया जाता है। जिसकी जैसी क्षमता होती है वह वैसा उपवास कर सकता है।
- अधोपवास- इसमें सूर्यास्त के पूर्व बगैर लहसुन-प्याज का एक समय भोजन किया जाता है। बाकी समय केवल जल ग्रहण किया जाता है।
- पूर्णोपवास -बिल्कुल साफ-सुथरे ताजे पानी के अलावा किसी और चीज को बिल्कुल न खाना पूर्णोपवास कहलाता है।
- अधोपवास में एक समय भोजन और बाकी समय उपवास।
- इन नौ दिनों में अगर आप उपवास नहीं रख रहे हैं, फिर भी आपको इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि, आप मद्यपान न करें, मांस-भक्षण और मसालेदार भोजन से परहेज करें, जहाँ तक हो सके सुद्ध सात्विक भोजन ही ग्रहण करें।
माँ अम्बिका के 9 रूप
1.मां शैलपुत्री-

1. वन्दे वंछितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढाम् शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्॥
2.देवी सर्वभूतेषु माँ शैलपुत्री रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः||
नवरात्रि के प्रथम दिन मां शैलपुत्री का पूजन किया जाता है ये मां दुर्गा का प्रथम स्वरुप हैं। ये राजा हिमालय (शैल) की पुत्री हैं इसी कारण ये शैलपुत्री कहलाती हैं। ये वृषभ पर विराजती हैं। इनके दाहिने हाथ में त्रिशूल तो बाएं हाथ में कमल धारण करती हैं। प्रथम दिन इनके पूजन से ही भक्त के नौं दिन की यात्रा आरंभ होती है।
2. मां ब्रह्मचारिणी-

दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा ॥
मां दुर्गा के नौं स्वरुपों में मां ब्रह्मचारिणी द्वितीय स्वरुप हैं। ब्रह्मचारिणी अर्थात् तप का आचरण करने वाली। इन्होंने भगवान शिव को पति रुप में प्राप्त करने के लिए कठोर तप किया था इसलिए ये ब्रह्मचारिणी कहलाई। मां ब्रह्मचारिणी का स्वरुप अत्यंत ज्योतिर्मय है। इनके बांए हाथ में कमंडल सुशोभित है तो दाहिने हाथ में ये माला धारण करती हैं। इनकी उपासना से साधक को सदाचार, संयम की प्राप्ति होती है।
3. चंद्रघण्टा देवी-

पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकेर्युता।
प्रसादं तनुते मह्यं चंद्रघण्टेति विश्रुता ॥
अलौकिक वस्तुओं के दर्शन कराती हैं मां चंद्रघंटा
नवरात्रि के तीसरे दिन मां चंद्रघंटा का पूजन होता है। ये मां दुर्गा की तृतीय शक्ति हैं। इनमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों की शक्तियां समाहित हैं। इनके मस्तक पर अर्द्ध चंद्र सुशोभित हैं, इसी कारण ये चंद्रघंटा कहलाती हैं।
इनके घंटे की ध्वनि से सभी नकारात्मक शक्तियां दूर भाग जाती हैं।माता चंद्रघंटा का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। माता के तीन नेत्र और दस हाथ हैं। इनके कर-कमल गदा, बाण, धनुष, त्रिशूल, खड्ग, खप्पर, चक्र और अस्त्र-शस्त्र हैं, अग्नि जैसे वर्ण वाली, ज्ञान से जगमगाने वाली दीप्तिमान देवी हैं चंद्रघंटा। ये शेर पर आरूढ़ है तथा युद्ध में लड़ने के लिए उन्मुख है।
4. कूष्मांडा माता-

सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्मांडा शुभदास्तु मे।
नवरात्रि के चौथे दिन मां दुर्गा के चतुर्थ स्वरुप कूष्मांडा माता की पूजा का विधान है। इनकी मंद हंसी से ही ब्रह्मांड का निर्माण होने के कारण इनका नाम कूष्मांडा पड़ा। धार्मिक ग्रंथो के अनुसार जब चारों ओर अंधकार ही अंधकार था तब मां की ऊर्जा से ही सृष्टि का सृजन हुआ था। मां कूष्मांडा का आठ भुजाएं हैं, वे इनमें धनुष, बाण, कमल, अमृत, चक्र, गदा और कमण्डल धारण करती हैं। मां के आंठवे हाथ में माला सुशोभित रहती है। ये भक्त को भवसागर से पार उतारती हैं और उसे लौकिक-परालौकिक उन्नति प्रदान करती हैं।
5. स्कंदमाता-

सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कंदमाता यशस्विनी॥
ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसी कारण इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है।
नवरात्रि के पांचवें दिन मां दुर्गा के पंचम स्वरुप स्कंदमाता का पूजन किया जाता है। ये अपनी गोद में कुमार कार्तिकेय को लिए हुए हैं और कार्तिकेय का एक नाम स्कंद है, इसी कारण ये स्कंद माता कहलाती हैं।
ये कमल के आसन पर विराजती हैं और इनका वाहन सिंह है। इनका स्वरुप स्नेहमय और मन को मोह लेने वाला है। इनकी चार भुजाएं हैं, दो भुजाओं में कमल सुशोभित हैं तो वहीं एक हाथ वर मुद्रा में रहता है। मां एक हाथ से अपनी गोद में स्कंद कुमार को लिए हुए हैं। स्कंद माता सदैव अपने भक्तों का कल्याण करने के लिए तत्पर रहती हैं।
6. कात्यायनी माता-

नवरात्रि में छठे दिन मां दुर्गा के षष्ठम स्वरुप मां कात्यायनी की आराधना की जाती है। इन्होंने कात्यायन ऋषि की तपस्या से प्रसन्न होकर उनके घर पुत्री रुप में जन्म लिया था और ऋषि कात्यायन ने ही सर्वप्रथम इनका पूजन किया था।
इसी कारण इनका नाम कात्यायनी पड़ा। मां कात्यायनी का स्वरुप तेजमय और अत्यंत चमकीला है। इनकी चार भुजाएं हैं, दाहिनी तरफ का ऊपर वाला हाथ अभयु मुद्रा में रहता है तो वहीं नीचे वाला हाथ वरमुद्रा में है।
बाई ओर के ऊपर वाले हाथ में मां तलवार धारण करती हैं तो वहीं नीचे वाले हाथ में कमल सुशोभित है। सिंह मां कात्यायनी का वाहन है। इनकी साधना से साथ को इस लोक में रहकर भी आलौकिक तेज की प्राप्ति होती है।
7. कालरात्रि माता-

एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता ।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी ॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा ।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी ॥
मां दुर्गा के सप्तम स्वरुप को कालरात्री कहा जाता है, नवरात्रि में सप्तमी तिथि को इन्हीं की पूजा अर्चना की जाती है। इनका स्वरुप देखने में प्रचंड है लेकिन ये अपने भक्तों के सदैव शुभ फल प्रदान करती हैं। इसलिए इन्हें शुभड्करी भी कहा जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार रक्तबीज नामक राक्षस का संहार करने के लिए मां ने ये भयानक रुप धारण किया था। इनकी पूजा करने से भक्त सभी तरह के भय से दूर हो जाता है। ये दुष्टों का विनाश करती हैं।
8. महागौरी माता-

मां दुर्गा के आठवें स्वरुप को महागौरी कहा जाता है। दुर्गा अष्टमी के दिन मां महागौरी की पूजा-आराधना की जाती है। पौराणिक कथा के अनुसार इन्होंने भगवान शिव को पति रुप में प्राप्त करने के लिए कठिन तपस्या की थी जिसके कारण इनका शरीर काला पड़ गया था। भगवान शिव ने प्रसन्न होकर इन्हें गौरवर्ण प्रदान किया इसलिए ये महागौरी कहलाईं।
ये श्वेत वस्त्र और आभूषण धारण करती हैं इसलिए इन्हें श्वेताम्बरधरा भी कहा जाता है। इनकी चार भुजाएं हैं। दाहिनी और का ऊपर वाला हाथ अभय मुद्रा में रहता है तो वहीं नीचे वाले हाथ में मां त्रिशूल धारण करती हैं। बाईं ओर के ऊपर वाले हाथ में डमरु रहता है तो नीचे वाला हाथ वर मुद्रा में रहता है। इनकी पूजा से पूर्वसंचित पापकर्म भी नष्ट हो जाते हैं। ये अमोघ फलदायिनी हैं और भक्तों का कल्याण करती हैं।
9. सिद्धिदात्री माता-

नवरात्रि में नवमी तिथि यानी अंतिम दिन मां दुर्गा के नौवें स्वरुप मां सिद्धिदात्री का पूजन किया जाता है। इनके नाम से ही पता चलता है सिद्धियों को प्रदान करने वाली। इनकी पूजा से भक्त को सिद्धियों की प्राप्ति होती है।
धार्मिक कथाओं के1 अनुसार भगवान शिव को इन्हीं से सिद्धियों की प्राप्ति हुई थी और इन्हीं की अनुकंपा से भगवान शिव का आधा शरीर देवी (नारी) का हुआ, जिसके बाद वे अर्द्ध नारीश्वर कहलाए। ये कमल के फूल पर विराजती हैं और सिंह इनका वाहन है। इनकी उपासना से भक्त की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
1.मां शैलपुत्री की कथा , पूजा विधि, पूजन मंत्र, भोग व महत्व और आरती
कथा:-
मां शैलपुत्री सती के नाम से भी जानी जाती हैं। इनकी कहानी इस प्रकार है – एक बार प्रजापति दक्ष ने यज्ञ करवाने का फैसला किया। इसके लिए उन्होंने सभी देवी-देवताओं को निमंत्रण भेज दिया, लेकिन भगवान शिव को नहीं। देवी सती भलीभांति जानती थी कि उनके पास निमंत्रण आएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वो उस यज्ञ में जाने के लिए बेचैन थीं, लेकिन भगवान शिव ने मना कर दिया।
उन्होंने कहा कि यज्ञ में जाने के लिए उनके पास कोई भी निमंत्रण नहीं आया है और इसलिए वहां जाना उचित नहीं है। सती नहीं मानीं और बार बार यज्ञ में जाने का आग्रह करती रहीं। सती के ना मानने की वजह से शिव को उनकी बात माननी पड़ी और अनुमति दे दी।
सती जब अपने पिता प्रजापित दक्ष के यहां पहुंची तो देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बातचीत नहीं कर रहा है। सारे लोग मुँह फेरे हुए हैं और सिर्फ उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया। उनकी बाकी बहनें उनका उपहास उड़ा रहीं थीं और सति के पति भगवान शिव को भी तिरस्कृत कर रहीं थीं। स्वयं दक्ष ने भी अपमान करने का मौका ना छोड़ा।
ऐसा व्यवहार देख सती दुखी हो गईं। अपना और अपने पति का अपमान उनसे सहन न हुआ…और फिर अगले ही पल उन्होंने वो कदम उठाया जिसकी कल्पना स्वयं दक्ष ने भी नहीं की होगी।
सती ने उसी यज्ञ की अग्नि में खुद को स्वाहा कर अपने प्राण त्याग दिए। भगवान शिव को जैसे ही इसके बारे में पता चला तो वो दुखी हो गए। दुख और गुस्से की ज्वाला में जलते हुए शिव ने उस यज्ञ को ध्वस्त कर दिया। इसी सती ने फिर हिमालय के यहां जन्म लिया और वहां जन्म लेने की वजह से इनका नाम शैलपुत्री पड़ा।
शैलपुत्री का नाम पार्वती भी है। इनका विवाह भी भगवान शिव से हुआ
मां शैलपुत्री का वास काशी नगरी वाराणसी में माना जाता है। वहां शैलपुत्री का एक बेहद प्राचीन मंदिर है जिसके बारे में मान्यता है कि यहां मां शैलपुत्री के सिर्फ दर्शन करने से ही भक्तजनों की मुरादें पूरी हो जाती हैं। कहा तो यह भी जाता है कि नवरात्र के पहले दिन यानि प्रतिपदा को जो भी भक्त मां शैलपुत्री के दर्शन करता है उसके सारे वैवाहिक जीवन के कष्ट दूर हो जाते हैं।
चूंकि मां शैलपुत्री का वाहन वृषभ है इसलिए इन्हें वृषारूढ़ा भी कहा जाता है। इनके बाएं हाथ में कमल और दाएं हाथ में त्रिशूल रहता है।
माता शैलपुत्री की पूजा विधि
नवरात्रि के पहले दिन कलश स्थापना और उसका पूजन किया जाता है। इसके बाद मां शैलपुत्री का पूजन किया जाता है। माता शैलपुत्री देवी पार्वती का ही एक रूप हैं जो नंदी पर सवार, श्वेत वस्त्र धारण करती हैं|
सबसे पहले मां शैलपुत्री की तस्वीर स्थापित करें और उसके नीचे लकड़ी की चौकी पर लाल वस्त्र बिछाएं। इसके ऊपर केशर से ‘शं’ लिखें और उसके ऊपर मनोकामना पूर्ति गुटिका रखें। तत्पश्चात् हाथ में लाल पुष्प लेकर शैलपुत्री देवी का ध्यान करें।
मां शैलपुत्री पूजन मंत्र
मां शैलपुत्री के पूजन में इन मंत्रों का जाप करना चाहिए। मां शैलपुत्री के मंत्रों का जाप करने से व्यक्ति के धैर्य और इच्छाशक्ति में वृद्धि होती है। मां शैलपुत्री अपने मस्तक पर अर्द्ध चंद्र धारण करती हैं, इसलिए इनके पूजन और मंत्र जाप से चंद्रमा संबंधित दोष भी समाप्त हो जाते हैं। श्रद्धा भाव से पूजन करने वाले को मां शैलपुत्री सुख और सौभाग्य प्रदान करती हैं।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डाय विच्चे ॐ शैलपुत्री देव्यै नमः।
मंत्र के साथ ही हाथ के पुष्प मनोकामना गुटिका एवं मां के तस्वीर के ऊपर छोड़ दें। इसके बाद प्रसाद अर्पित करें तथा मां शैलपुत्री के मंत्र का जाप करें। इस मंत्र का जप कम से कम 108 करें।
मंत्र- ॐ शं शैलपुत्री देव्यै नमः।
मंत्र संख्या पूर्ण होने के बाद मां दुर्गा के चरणों में अपनी मनोकामना व्यक्त करके मां से प्रार्थना करें तथा आरती एवं कीर्तन करें। मंत्र के साथ ही हाथ के पुष्प मनोकामना गुटिका एवं मां के तस्वीर के ऊपर छोड़ दें। इसके बाद भोग अर्पित करें तथा मां शैलपुत्री के मंत्र का जाप करें। यह जप कम से कम 108 होना चाहिए।
ध्यान मंत्र:-
वन्दे वांच्छित लाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्र यशस्विनीम् ॥
अर्थात देवी वृषभ पर विराजित हैं। शैलपुत्री के दाहिने हाथ में त्रिशूल है और बाएं हाथ में कमल पुष्प सुशोभित है। यही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा है। नवरात्रि के प्रथम दिन देवी उपासना के अंतर्गत शैलपुत्री का पूजन करना चाहिए।
स्तोत्र पाठ
प्रथम दुर्गा त्वंहि भवसागर: तारणीम्।
धन ऐश्वर्य दायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम् ॥
त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान् ।
सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यहम् ॥
चराचरेश्वरी त्वंहि महामोहः विनाशिन|
मुक्ति भुक्ति दायनी शैलपुत्री प्रणमाम्यहम् ॥
कवच मंत्र
ॐकारः में शिरः पातु मूलाधार निवासिनी।
हींकारः पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी॥
श्रींकार पातु वदने लावण्या महेश्वरी।
हुंकार पातु हृदयम् तारिणी शक्ति स्वघृत।
फट्कार पातु सर्वाङ्गे सर्व सिद्धि फलप्रदा॥
मां शैलपुत्री पूजा का भोग व महत्व
पुराणों के अनुसार मां शैलपुत्री की विधिवत पूजा-अर्चना करने से अच्छी सेहत और मान-सम्मान का आशीर्वाद प्राप्त होता है|इसके अलावा कुंवारी कन्याओं की शादी में आ रही बाधाएं भी खत्म हो जाती हैं| माता शैलपुत्री को सफेद पुष्प बेहद प्रिय है|
इसलिए, इनकी पूजा में सफेद फूल का इस्तेमाल जरूर करना चाहिए| इसके अलावा इनकी पूजा में सफेद रंग की मिठाई का भोग लगाना चाहिए| सफेद बर्फी या दूध से बनी शुद्ध मिठाइयों का भी भोग लगा सकते हैं| इसके अलावा माता को सफेद वस्त्र अर्पित करना लाभकारी होता है.
शैलपुत्री की सक्रियता से मन और मस्तिष्क का विकास होने लगता है। अंतर्मन में उमंग और आनंद व्याप्त हो जाता है। इनका जागरण न होने से मनुष्य विषय वासनाओं में लिप्त होकर सुस्त, स्वार्थी, आत्मकेंद्रित होकर थका-थका सा दिखाई देता है। शैलपुत्री मनुष्य के कायाकल्प के द्वारा सशक्त और परमहंस बनाने का प्रथम सूत्र है। स्वयं में ध्यान-भजन के द्वारा इनकी तलाश देह में काम को संतुलित करके बाहर से चट्टान की शक्ति प्रदान करती है। मानसिक स्थिरता देती है।
मां शैलपुत्री की आरती
मां शैलपुत्री की आरती शैलपुत्री मां बैल पर सवार करें देवता जय जयकारा.
शिव शंकर की प्रिय भवानी तेरी महिमा किसी ने ना जानी।
पार्वती तू उमा कहलाये जो तुझे सिमरे सो सुख पावे।
ऋद्धि-सिद्धि परवान करे तू दया करे धनवान करे तू।
सोमवार को शिव संग प्यारी आरती तेरी जिसने उतारी।
उसकी सगरी आस पुजा दो सगरे दुख तकलीफ मिला दो।
घी का सुंदर दीप जला के गोला गरी का भोग लगा के
श्रद्धा भाव से मंत्र गाए। प्रेम सहित फिर शीश झुकाएं।
जय गिरिराज किशोरी अबे शिव मुख चंद्र चकोरी अंबे
मनोकामना पूर्ण कर दो। भक्त सदा सुख संपत्ति भर दो।
2. मां ब्रह्मचारिणी की कथा , पूजा विधि, पूजन मंत्र, भोग व महत्व और आरती
कथा
माँ दुर्गा की नवशक्ति का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है। यहां ब्रह्म का अर्थ तपस्या अर्थ तपस्या से है। मां दुर्गा का यह स्वरूप भक्तों और सिद्धों को अनंत फल देने वाला है। इनकी उपासना से तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार और संयम की वृद्धि होती है।
ब्रह्मचारिणी का अर्थ तप की चारिणी यानी तप का आचरण करने वाली देवी का यह रूप पूर्ण ज्योतिर्मय और अत्यंत भव्य है। इस देवी के दाएं हाथ में जप की माला है और बाएं हाथ में यह कमण्डल धारण किए हैं।
पूर्वजन्म में इस देवी ने हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया था और नारदजी के उपदेश से भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात् ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया। मीन में इन्होंने केवल फल-फूल बिताए सौ दिन तक केवल जमीन पर रहकर निर्वाह किया।
कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखे और खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के घोर कष्ट सहे। तीन हजार वर्षों तक टूटे हुए बेल पत्र खाए और भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। इसके बाद तो उन्होंने सूखे बेल पत्र खाना भी छोड़ दिए। कई हजार वर्षों तक निर्जल और निराहार रह कर तपस्या करती रहीं। पत्तों को खाना छोड़ देने के कारण ही इनका नाम अपर्णा नाम पड़ गया।
कठिन तपस्या के कारण देवी का शरीर एकदम क्षीण हो गया। देवता, ऋषि, सिद्धगण, मुनि सभी ने ब्रह्मचारिणी की तपस्या को अभूतपूर्व पुण्य कृत्य बताया, सराहना की और कहा हे देवी, आज तक किसी ने इस तरह की कठोर तपस्या नहीं की। यह तुम्हीं से ही संभव थी। तुम्हारी मनोकामना परिपूर्ण होगी और भगवान चंद्रमौलि शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तपस्या छोड़कर घर लौट जाओ। जल्द ही तुम्हारे पिता तुम्हें बुलाने आ रहे हैं।
इस देवी की कथा का सार यह है कि जीवन के कठिन संघर्षों में भी मन विचलित नहीं होना चाहिए। मां ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से सर्व सिद्धि प्राप्त होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन देवी के इसी स्वरूप की उपासना की जाती है।
ब्रह्मचारिणी देवी की पूजा विधि
घर के मंदिर में दीप प्रज्वलित करने के बाद मां दुर्गा का गंगा जल से अभिषेक करें। अब मां दुर्गा को अर्घ्य दें। मां को अक्षत, सिन्दूर और लाल पुष्प अर्पित करें, प्रसाद के रूप में फल और मिठाई चढ़ाएं। धूप और दीपक जलाकर दुर्गा चालीसा का पाठ करें और फिर मां की आरती करें। मां को भोग भी लगाएं। इस बात का ध्यान रखें कि भगवान को सिर्फ सात्विक चीजों का भोग लगाया जाता है।
श्लोक
1. या देवी सर्वभूतेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
2. दधाना कर पद्माभ्याम अक्षमाला कमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मई ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।।
इसके बाद देवी मां को प्रसाद चढ़ाएं और आचमन करवाएं। प्रसाद के बाद पान सुपारी भेंट करें और प्रदक्षिणा करें यानी 3 बार अपनी ही जगह खड़े होकर घूमें। प्रदक्षिणा के बाद घी व कपूर मिलाकर देवी की आरती करें। इन सबके बाद क्षमा प्रार्थना करें और प्रसाद बांट दें।
स्तोत्र पाठ
ब्रह्मचारिणी देवी की पूजा करने के बाद स्तोत्र और कवच का पाठ करना चाहिए। जिससे देवी प्रसन्न होती हैं। ब्रह्मचारिणी देवी का स्तोत्र का पाठ करने से ज्ञान और शांति मिलती है। हर तरह की परेशानियों से छुटकारा मिलता है। वहीं सोचे हुए काम भी पूरे हो जाते हैं।
तपश्चारिणी त्वंहि तापत्रय निवारणीम्।
ब्रह्मरूपधरा ब्रह्मचारिणी प्रणमाम्यहम्॥
शंकरप्रिया त्वंहि भुक्ति-मुक्ति दायिनी।
शान्तिदा ज्ञानदा ब्रह्मचारिणीप्रणमाम्यहम्॥
इसके बाद ब्रह्मचारिणी कवच स्तोत्र का पाठ भी कर सकते हैं। इसका पाठ करने से रक्षा होती है। ब्रह्मचारिणी कवच स्तोत्र पाठ करने से तनाव दूर होता है और कोई अनहोनी नहीं होती। इस कवच का पाठ करने से दुर्घटना से भी रक्षा होती है।
ब्रह्मचारिणी कवच स्तोत्र
त्रिपुरा में हृदयं पातु ललाटे पातु शंकरभामिनी।
अर्पण सदापातु नेत्रो, अर्धरी च कपोलो॥
पंचदशी कण्ठे पातुमध्यदेशे पातुमहेश्वरी॥
षोडशी सदापातु नाभो गृहो च पादयो।
अंग प्रत्यंग सतत पातु ब्रह्मचारिणी।
मां ब्रह्मचारिणी की पूजा का भोग व महत्व
देवी मां ब्रह्मचारिणी को चीनी और मिश्री काफी पसंद है इसलिए मां को भोग में चीनी, मिश्री और पंचामृत का भोग लगाएं| मां ब्रह्मचारिणी को दूध और दूध से बने भोजन अति प्रिय होते हैं इसलिए आप उन्हें दूध से बने व्यंजनों का भोग लगा सकते हैं|
माता के इस स्वरुप की आराधना से व्यक्ति के जीवन मे संयम, सदाचार, आत्मविश्वास, तेज, बल व सात्विक बुद्धि का विकास निरंतर होता रहता है, तथा अविवेक, असंतोष, लोभ आदि दुर्गुणों का अंत होता। जीवन में उत्साह, धैर्य व साहस में बढ़ोत्तरी होती है। व्यक्ति अपने कर्मों के प्रति ईमानदार और सजग हो जाता है।
मां ब्रह्मचारिणी की आरती
जय अंबे ब्रह्माचारिणी माता।
जय चतुरानन प्रिय सुख दाता।
ब्रह्मा जी के मन भाती हो।
ज्ञान सभी को सिखलाती हो।
ब्रह्मा मंत्र है जाप तुम्हारा।
जिसको जपे सकल संसारा।
जय गायत्री वेद की माता।
जो मन निस दिन तुम्हें ध्याता।
कमी कोई रहने न पाए।
कोई भी दुख सहने न पाए।
उसकी विरति रहे ठिकाने।
जो तेरी महिमा को जाने।
रुद्राक्ष की माला ले कर।
जपे जो मंत्र श्रद्धा दे कर।
आलस छोड़ करे गुणगाना।
मां तुम उसको सुख पहुंचाना।
ब्रह्माचारिणी तेरो नाम।
पूर्ण करो सब मेरे काम।
भक्त तेरे चरणों का पुजारी।
रखना लाज मेरी महतारी।
3. माँ चंद्रघण्टा देवी की कथा , पूजा विधि, पूजन मंत्र, भोग व महत्व और आरती
धर्म के अनुसार देवी चंद्रघंटा की पूजा करने से व्यक्ति के अंदर निर्भरता, सौम्यता और विनम्रता जैसी प्रवृत्ति उत्पन्न होती है। देवी का यह रूप अत्यंत शांत और सौम्य हैं। माता के सिर पर अर्ध चंद्रमा और मंदिर के घंटे लगे रहने के कारण देवी का नाम चंद्रघंटा पड़ा है। मां चंद्रघंटा अपने वाहन सिंह पर उठकर अपने 10 भुजाओं में खडग, तलवार ढाल, गधा, पास, त्रिशूल, चक्र और धनुष लिए मुस्कुराती मुद्रा में दिखाई देती हैं। क्या आप भी नवरात्रि का व्रत करते हैं, यदि हां, तो यहां आप चंद्रघंटा माता की व्रत कथा देखकर पढ़ सकते हैं।
कथा
हिंदू शास्त्र के अनुसार जब देवताओं और असुरों के बीच लंबे समय तक युद्ध चल रहा था तब असुरों का स्वामी महिषासुर ने देवताओं पर विजय प्राप्त कर इंद्र का सिंहासन छीन लिया और खुद स्वर्ग का स्वामी बन बैठा। इसे देखकर सभी देवता गण काफी दुखी हुए। स्वर्ग से निकाले जाने के बाद सभी देवतागण इस समस्या से निकलने के लिए त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश के पास गए।
वहां जाकर सभी देवताओं ने असुरों के किए गए अत्याचार और इंद्र, चंद्रमा, सूर्य, वायु और अन्य देवताओं के सभी छीने गए अधिकार के बारे में भगवान को बताया।
देवताओं ने भगवान को बताया कि महिषासुर के अत्याचार के कारण स्वर्ग लोक तथा पृथ्वी पर अब विचरन करना असंभव हो गया है। तब यह सुनकर ब्रह्मा, विष्णु और भगवान शिव शंकर अत्यंत क्रोधित हो गए। उसी समय तीनो भगवान के मुख से एक ऊर्जा उत्पन्न हुई। देवतागणों के शरीर से निकली हुई उर्जा भी उस ऊर्जा से जाकर मिल गई।
यह ऊर्जा दसों दिशाओं में व्याप्त होने लगी। तभी वहां एक कन्या उत्पन्न हुई। तब शंकर भगवान ने देवी को अपना त्रिशूल भेट किया। भगवान विष्णु ने भी उनको चक्र प्रदान किया। इसी तरह से सभी देवता ने माता को अस्त्र-शस्त्र देकर सजा दिया। इंद्र ने भी अपना वज्र एवं ऐरावत हाथी माता को भेंट किया।
सूर्य ने अपना तेज, तलवार और सवारी के लिए शेर प्रदान किया। तब देवी सभी शास्त्रों को लेकर महिषासुर से युद्ध करने के लिए युद्ध भूमि में आ गई। उनका यह विशाल का रूप देखकर महिषासुर भय से कांप उठा। तब महिषासुर ने अपनी सेना को मां चंद्रघंटा के पर हमला करने को कहा। तब देवी ने अपने अस्त्र-शस्त्र से असुरों की सेनाओं को भर में नष्ट कर दिया। इस तरह से मां चंद्रघंटा ने असुरों का वध करके देवताओं को अभयदान देते हुए अंतर्ध्यान हो गई।
माँ चंद्रघण्टा देवी की पूजा विधि और भोग
नवदुर्गा की तीसरा रूप मां चंद्रघण्टा है, इनका पूजन नवरात्रि के तीसरे दिन किया जाता है। इस दिन सबरे स्नान आदि से निवृत्त हो कर लकड़ी की चौकी पर मां की मूर्ति को स्थापित करें। मां चंद्रघण्टा को धूप, दीप, रोली, चंदन, अक्षत अर्पित करें। मां को लाल रंग के पुष्प और लाल सेब चढ़ाना चाहिए। मां चंद्रघण्टा को दूध या दूध की खीर का भोग लगाना चाहिए।
इसके बाद दुर्गा सप्तशती का पाठ करके मां चंद्रघण्टा के मंत्रों का जाप करना चाहिए। पूजन का अंत मां की आरती गा कर किया जाता है। मां के पूजन में घण्टा जरूर बजाएं, ऐसा करने से आपके घर की सभी नकारात्मक और आसुरी शक्तियों का नाश होता है।
तृतीया के दिन भगवती की पूजा में दूध की प्रधानता होनी चाहिए और पूजन के उपरांत वह दूध ब्राह्मण को देना उचित माना जाता है। इस दिन सिंदूर लगाने का भी रिवाज है।
माँ चंद्रघण्टा देवी पूजन मंत्र
या देवी सर्वभूतेषु मां चन्द्रघण्टारूपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः
पिण्डज प्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता
प्रसादं तनुते महयं चन्द्रघण्टेति विश्रुता
ध्यान मंत्र:
वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्धकृत शेखरम्।
सिंहारूढा चंद्रघंटा यशस्वनीम्॥
मणिपुर स्थितां तृतीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।
खंग, गदा, त्रिशूल,चापशर,पदम कमण्डलु माला वराभीतकराम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर हार केयूर,किंकिणि, रत्नकुण्डल मण्डिताम॥
प्रफुल्ल वंदना बिबाधारा कांत कपोलां तुगं कुचाम्।
कमनीयां लावाण्यां क्षीणकटि नितम्बनीम्॥
स्तोत्र पाठ:
आपदुध्दारिणी त्वंहि आद्या शक्तिः शुभपराम्।
अणिमादि सिध्दिदात्री चंद्रघटा प्रणमाभ्यम्॥
चन्द्रमुखी इष्ट दात्री इष्टं मन्त्र स्वरूपणीम्।
धनदात्री, आनन्ददात्री चन्द्रघंटे प्रणमाभ्यहम्॥
नानारूपधारिणी इच्छानयी ऐश्वर्यदायनीम्।
सौभाग्यारोग्यदायिनी चंद्रघंटप्रणमाभ्यहम्॥
माता चंद्रघंटा देवी कवच
रहस्यं श्रणु वक्ष्यामि शैवेशी कमलानने।
श्री चन्द्रघण्टास्य कवचं सर्वसिद्धि दायकम्॥
बिना न्यासं बिना विनियोगं बिना शापोद्धारं बिना होमं।
स्नान शौचादिकं नास्ति श्रद्धामात्रेण सिद्धिकम॥
कुशिष्याम कुटिलाय वंचकाय निन्दकाय च।
न दातव्यं न दातव्यं न दातव्यं कदाचितम्॥
माता चंद्रघंटा देवी के पूजन का महत्व
माँ चंद्रघंटा की कृपा से साधक के समस्त पाप व बाधाएं खत्म हो जाती हैं। मां चंद्रघंटा की कृपा से साधक पराक्रमी व निर्भय हो जाता है। मां चंद्रघंटा प्रेतबाधा से भी रक्षा करती है, इनकी आराधना से वीरता-निर्भयता के साथ ही सौम्यता एवं विनम्रता का विकास होकर मुख, नेत्र तथा संपूर्ण काया का भी विकास होता है। मां चंद्रघंटा की उपासना से मनुष्य समस्त सांसारिक कष्टों से मुक्ति पाता है।
माँ चंद्रघण्टा देवी की आरती
नवरात्रि के तीसरे दिन चंद्रघंटा का ध्यान
मस्तक पर है अर्ध चंद्र, मंद मंद मुस्कान
दस हाथों में अस्त्र शस्त्र रखे खडग संग बांद
घंटे के शब्द से हरती दुष्ट के प्राण
सिंह वाहिनी दुर्गा का चमके स्वर्ण शरीर
करती विपदा शांति हरे भक्त की पीर
मधुर वाणी को बोल कर सबको देती ज्ञान
भव सागर में फंसा हूं मैं, करो मेरा कल्याण
नवरात्रों की मां, कृपा कर दो मां
जय मां चंद्रघंटा, जय मां चंद्रघंटा
4. कूष्मांडा माता की कथा , पूजा विधि, पूजन मंत्र, भोग व महत्व और आरती
कूष्मांडा माता की कथा
अपने उदर से ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण मां दुर्गा के इस स्वरुप को कूष्मांडा के नाम से पुकारा जाता है । मान्यतानुसार सिंह पर सवार माँ कुष्मांडा सूर्यलोक में वास करती है, जो क्षमता किसी अन्य देवी देवता में नहीं है। माँ कूष्मांडा अष्टभुजा धारी हैं ओर अस्त्र शस्त्र के साथ माँ के एक हाथ में अमृत कलश भी है। अपने देवीय स्वरुप में मां कूष्मांडा बाघ पर सवार हैं।
एक पौराणिक कथा के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, तब इन्हीं देवी ने ब्रह्मांड की रचना की थी। ये ही सृष्टि की आदि-स्वरूपा, आदिशक्ति हैं। इनका निवास सूर्यमंडल के भीतर के लोक में है। वहां निवास कर सकने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है।
इनके शरीर की कांति और प्रभा भी सूर्य के समान ही देदीप्यमान हैं। मां कूष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक मिट जाते हैं। इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है। मां कूष्माण्डा अत्यल्प सेवा और भक्ति से प्रसन्न होने वाली हैं।
इनका वाहन सिंह है। नवरात्र पूजन के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरुप की ही उपासना की जाती है। इस दिन माँ कूष्माण्डा की उपासना से आयु यश, बल, और स्वास्थ्य में वृद्धि होती है।
कूष्मांडा माता की पूजा विधि और भोग
- नवरात्रि के चौथे दिन रोजाना की तरह सूर्योदय से पहले उठकर स्नान आदि कर निवृत्त हो जाएं। सर्वप्रथम कलश पूजन व विघ्नहर्ता भगवान गणेश की पूजा करने के बाद मां कुष्मांडा की पूजा अर्चना की शुरुआत करें।
- माता को पंचामृत से स्नान कराएं और श्रंगार करें। इसके बाद माता को गुड़हल का फूल, फल, अक्षत सिंदूर और लाल रंग का जोड़ा अर्पित करें।
- धूप दीप कर मां कुष्मांडा का पाठ करें और नीचे दिए मंत्रों का 108 बार जप करें। अब माता को मालपुए का भोग लगाएं।
- मान्यता है कि माता को मालपुए का भोग लगाने के बाद किसी ब्राम्हण को खिलाने से माता प्रसन्न होती हैं। भोग लगाने के बाद माता की आरती करें।
- ध्यान रहे माता की पूजा करते समय सिर खुला नहीं होना चाहिए। खासकर महिलाएं ध्यान रखें पूजा करते समय अपने बालों को अच्छी तरह बांध लें और सिर चुन्नी या साड़ी से ढ़क लें।
मां को लगाएं दही-हलवा का भोग
मां कूष्मांडा को दही और हलवा बहुत प्रिय है जो भक्त मां की इन चीजों के साथ आराधना करते हैं. उन पर मां सदा अपनी कृपा बनाए रखती हैं| इसलिए मां को खुश करने के लिए आप हलवे का भोग लगा सकते हैं|
पूजा के समय पढ़ें ये पूजन मंत्र
या देवी सर्वभूतेषु मां कूष्मांडा रूपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम
कुष्मांडा मंत्र
सर्व स्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते ।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि कूष्माण्डेति मनोस्तुते ॥
ॐ देवी कूष्माण्डायै नमः ॥
कुष्मांडा ध्यान मंत्र
वन्दे वांछित कामर्थेचन्द्रार्धकृतशेखराम्।
सिंहरूढा अष्टभुजा कुष्माण्डायशस्वनीम् ॥
भास्वर भानु निभां अनाहत स्थितां चतुर्थ दुर्गा त्रिनेत्राम्।
कमण्डलु चाप, बाण, पदमसुधाकलश चक्र गदा जपवटीधराम्॥
पटाम्बर परिधानां कमनीया कृदुहगस्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर हार केयूर किंकिण रत्नकुण्डल मण्डिताम्।
प्रफुल्ल वदनां नारू चिकुकां कांत कपोलां तुंग कूचाम्।
कोलांगी स्मेरमुखीं क्षीणकटि निम्ननाभि नितम्बनीम् ॥
कुष्मांडा बीज मंत्र
ऐं ही देव्यै नमः।
स्तोत्र पाठ
दुर्गतिनाशिनी त्वंहि दारिद्रादि विनाशिनीम्।
जयंदा धनदां कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
जगन्माता जगतकत्री जगदाधार रूपणीम्।
चराचरेश्वरी कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
त्रैलोक्यसुंदरी त्वंहि दु:ख शोक निवारिणाम्।
परमानंदमयी कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
कूष्मांडा माता कवच मंत्र
हंसरै में शिर पातु कूष्माण्डे भवनाशिनीम्।
हसलकरीं नेत्रेच, हसरौश्च ललाटकम्॥
कौमारी पातु सर्वगात्रे, वाराही उत्तरे तथा,पूर्वे पातु वैष्णवी इन्द्राणी दक्षिणे मम।
दिगिव्दिक्षु सर्वत्रेव कूं बीजं सर्वदावतु॥
कूष्मांडा माता के पूजन का महत्व
मां कुष्मांडा संसार को अनेक कष्टों और विपदाओं से मुक्ति प्रदान करती हैं। वह अपने भक्तों के दुखों को दूर करती हैं। माता को लाल रंग पुष्प अधिक प्रिय है, पूजा के दौराना देवी कुष्मांडा को आप गुड़हल का पुष्प अर्पित कर सकते हैं। देवी कूष्मांडा की पूजा से आयु, यश, बल, और स्वास्थ्य में वृद्धि होती है। इनकी पूजा से हर तरह के रोग, शोक और दोष दूर हो जाते हैं।
किसी तरह का क्लेश भी नहीं होता है। देवी कूष्मांडा को कुष्मांड यानी कुम्हड़े की बली दी जाती है। इसकी बली से हर तरह की परेशानियां दूर हो जाती है। कूष्मांडा देवी की पूजा से समृद्धि और तेज प्राप्त होता है। इनकी पूजा से जीवन में भी अंधकार नहीं रहता है।
कूष्मांडा माता की आरती
कूष्मांडा जय जग सुखदानी।
मुझ पर दया करो महारानी॥
पिगंला ज्वालामुखी निराली।
शाकंबरी मां भोली भाली॥
लाखों नाम निराले तेरे ।
भक्त कई मतवाले तेरे॥
भीमा पर्वत पर है डेरा।
स्वीकारो प्रणाम ये मेरा॥
सबकी सुनती हो जगदम्बे।
सुख पहुँचती हो माँ अम्बे॥
तेरे दर्शन का मैं प्यासा।
पूर्ण कर दो मेरी आशा॥
माँ के मन में ममता भारी।
क्यों ना सुनेगी अरज हमारी॥
तेरे दर पर किया है डेरा।
दूर करो मां संकट मेरा॥
मेरे कारज पूरे कर दो।
मेरे तुम भंडारे भर दो॥
तेरा दास तुझे ही ध्याए।
भक्त तेरे दर शीश झुकाए॥
5. स्कंदमाता की कथा , पूजा विधि, पूजन मंत्र, भोग व महत्व और आरती
कथा
मां दुर्गा का पंचम रूप स्कंदमाता के रूप में जाना जाता है। भगवान स्कंद कुमार [कार्तिकेय] की माता होने के कारण दुर्गा जी के इस पांचवें स्वरूप को स्कंद माता नाम प्राप्त हुआ है।
भगवान स्कंद जी बालरूप में माता की गोद में बैठे होते हैं इस दिन साधक का मन विशुद्ध चक्र में अवस्थित होता है। स्कंद मातृस्वरूपिणी देवी की चार भुजाएं हैं, ये दाहिनी ऊपरी भुजा में भगवान स्कंद को गोद में पकड़े हैं और दाहिनी निचली भुजा जो ऊपर को उठी है, उसमें कमल पकडा हुआ है। मां का वर्ण पूर्णत: शुभ्र है और कमल के पुष्प पर विराजित रहती हैं। इसी से इन्हें पद्मासना की देवी और विद्यावाहिनी दुर्गा देवी भी कहा जाता है।
इनका वाहन भी सिंह है। स्कंदमाता सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी है। इनकी उपासना करने से साधक अलौकिक तेज की प्राप्ति करता है। यह अलौकिक प्रभामंडल प्रतिक्षण उसके योगक्षेम का निर्वहन करता है। एकाग्रभाव से मन को पवित्र करके मां की स्तुति करने से दु:खों से मुक्ति पाकर मोक्ष का मार्ग सुलभ होता है।
स्कंदमाता की पूजा विधि
सबसे पहले चौकी (बाजोट) पर स्कंदमाता की प्रतिमा या तस्वीर स्थापित करें। इसके बाद गंगा जल या गोमूत्र से शुद्धिकरण करें। चौकी पर चांदी, तांबे या मिट्टी के घड़े में जल भरकर उस पर कलश रखें। उसी चौकी पर श्रीगणेश, वरुण, नवग्रह, षोडश मातृका (16 देवी), सप्त घृत मातृका (सात सिंदूर की बिंदी लगाएं) की स्थापना करें।इसके बाद व्रत, पूजन का संकल्प लें और वैदिक एवं सप्तशती मंत्रों द्वारा स्कंदमाता सहित समस्त स्थापित देवताओं की षोडशोपचार पूजा करें।
इसमें आवाहन, आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, सौभाग्य सूत्र, चंदन, रोली, हल्दी, सिंदूर, दुर्वा, बिल्वपत्र, आभूषा पुष्प-हार, सुगंधित द्रव्य, धूप-दीप, नैवेद्य, फल, पान, दक्षिणा, आरती, प्रदक्षिणा, मंत्र पुष्पांजलि आदि करें। तत्पश्चात प्रसाद वितरण कर पूजन संपन्न करें।
माना जाता है कि पंचोपचार विधि से देवी स्कंदमाता की पूजा करना बहुत शुभ होता है।
स्कंदमाता का स्वरुप
देवी स्कंदमाता क्रूर सिंह पर विराजमान हैं। वह बच्चे मुरुगन को गोद में उठाती हैं। भगवान मुरुगन को कार्तिकेय और भगवान गणेश के भाई के रूप में भी जाना जाता है। देवी स्कंदमाता को चार हाथों से चित्रित किया गया है। वह अपने ऊपर के दोनों हाथों में कमल के फूल लिए हुए हैं। वह अपने एक दाहिने हाथ में मुरुगन को रखती है और दूसरे को अभय मुद्रा में रखती है। वह कमल के फूल पर विराजमान हैं और इसी वजह से स्कंदमाता को देवी पद्मासन के नाम से भी जाना जाता है।
देवी स्कंदमाता का रंग शुभ्रा (शुभ्र) है जो उनके सफेद रंग का वर्णन करता है। देवी पार्वती के इस रूप की पूजा करने वाले भक्तों को भगवान कार्तिकेय की पूजा का लाभ मिलता है। यह गुण केवल देवी पार्वती के स्कंदमाता रूप में है।
स्कंदमाता पूजन मंत्र
या देवी सर्वभूतेषु स्कंदमाता रूपेण संस्थिता|
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ।।
- माना जाता है कि स्कंदमाता की पूजा करने से बाल रूप स्कंद कुमार की पूजा पूरी मानी जाती है।
- देवी स्कंदमाता की पूजा करते वक्त नारंगी रंग के वस्त्र धारण करें और नारंगी रंग के कपड़ों और श्रृंगार सामग्री से ही देवी को सजाएं। इस रंग को ताजगी का प्रतीक भी माना जाता है।
- देवी अपने इस रूप में यानि स्कंदमाता के रूप में अपने भक्तों की सभी इच्छाओं की पूर्ति करती है इसलिए भक्त जो चाहें उनसे मांग सकते हैं।
स्कंदमाता के लिए नैवेद्य
स्कंदमाता को केले प्रिय हैं इसलिए उन्हें केले का भोग लगाएं और बाद में इस भोग को ब्राह्मण को दे दें। ऐसा करने से साधक का स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। इसके साथ ही खीर और सूखे मेवे का भी नैवेद्य लगाया जा सकता है।
स्कंदमाता ध्यान मंत्र
वन्दे वांछित कामर्थेचन्द्रार्घकृतशेखराम्।
सिंहारूढाचतुर्भुजास्कन्धमातायशस्वनीम्॥
धवलवर्णाविशुद्ध चक्रस्थितांपंचम दुर्गा त्रिनेत्राम।
अभय पदमयुग्म करांदक्षिण उरूपुत्रधरामभजेम्॥
पटाम्बरपरिधानाकृदुहज्ञसयानानालंकारभूषिताम्।
मंजीर हार केयूर किंकिणिरत्नकुण्डलधारिणीम।।
प्रभुल्लवंदनापल्लवाधरांकांत कपोलांपीन पयोधराम्।
कमनीयांलावण्यांजारूत्रिवलींनितम्बनीम्॥
स्कंदमाता स्तोत्र पाठ
नमामि स्कन्धमातास्कन्धधारिणीम्।
समग्रतत्वसागरमपारपारगहराम्॥
शिप्रभांसमुल्वलांस्फुरच्छशागशेखराम्।
ललाटरत्नभास्कराजगतप्रदीप्तभास्कराम्॥
महेन्द्रकश्यपाíचतांसनत्कुमारसंस्तुताम्।
सुरासेरेन्द्रवन्दितांयथार्थनिर्मलादभुताम्॥
मुमुक्षुभिíवचिन्तितांविशेषतत्वमूचिताम्।
नानालंकारभूषितांकृगेन्द्रवाहनाग्रताम्।।
सुशुद्धतत्वातोषणांत्रिवेदमारभषणाम्।
सुधामककौपकारिणीसुरेन्द्रवैरिघातिनीम्॥
शुभांपुष्पमालिनीसुवर्णकल्पशाखिनीम्।
तमोअन्कारयामिनीशिवस्वभावकामिनीम्॥
सहस्त्रसूर्यराजिकांधनज्जयोग्रकारिकाम्।
सुशुद्धकाल कन्दलांसुभृडकृन्दमज्जुलाम्॥
प्रजायिनीप्रजावती नमामिमातरंसतीम्।
स्वकर्मधारणेगतिंहरिप्रयच्छपार्वतीम्॥
इनन्तशक्तिकान्तिदांयशोथमुक्तिदाम्।
पुन:पुनर्जगद्धितांनमाम्यहंसुराíचताम॥
जयेश्वरित्रिलाचनेप्रसीददेवि पाहिमाम्॥
स्कंदमाता कवच मंत्र
नमामि स्कन्दमाता स्कन्दधारिणीम्।
समग्रतत्वसागरम् पारपारगहराम्॥
शिवाप्रभा समुज्वलां स्फुच्छशागशेखराम्।
ललाटरत्नभास्करां जगत्प्रदीप्ति भास्कराम्॥
महेन्द्रकश्यपार्चितां सनत्कुमार संस्तुताम्।
सुरासुरेन्द्रवन्दिता यथार्थनिर्मलाद्भुताम्॥
अतर्क्यरोचिरूविजां विकार दोषवर्जिताम्।
मुमुक्षुभिर्विचिन्तितां विशेषतत्वमुचिताम्॥
नानालङ्कार भूषिताम् मृगेन्द्रवाहनाग्रजाम्।
सुशुध्दतत्वतोषणां त्रिवेदमार भूषणाम्॥
सुधार्मिकौपकारिणी सुरेन्द्र वैरिघातिनीम्।
शुभां पुष्पमालिनीं सुवर्णकल्पशाखिनीम्॥
तमोऽन्धकारयामिनीं शिवस्वभावकामिनीम्।
सहस्रसूर्यराजिकां धनज्जयोग्रकारिकाम्॥
सुशुध्द काल कन्दला सुभृडवृन्दमज्जुलाम्।
प्रजायिनी प्रजावति नमामि मातरम् सतीम्॥
स्वकर्मकारणे गतिं हरिप्रयाच पार्वतीम्।
अनन्तशक्ति कान्तिदां यशोअर्थभुक्तिमुक्तिदाम्॥
पुनः पुनर्जगद्धितां नमाम्यहम् सुरार्चिताम्।
जयेश्वरि त्रिलोचने प्रसीद देवी पाहिमाम्॥
स्कंदमाता पूजा का महत्व
इन्हें मोक्ष के द्वार खोलने वाली माता के रूप में पूजा जाता है। शास्त्रों में मां स्कंदमाता की आराधना का काफी महत्व बताया गया है। इनकी उपासना से भक्त की सारी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। भक्त को मोक्ष मिलता है, सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण इनका उपासक अलौकिक तेज और कांतिमय हो जाता है। ऐस में मन को एकाग्र रखकर और पवित्र रखकर इस देवी की आराधना करने वाले साधक या भक्त को भवसागर पार करने में कठिनाई नहीं आती है। इसके अलावा स्कंदमाता की कृपा से संतान के इच्छुक दंपत्ति को संतान सुख प्राप्त हो सकता है।
स्कंदमाता की आरती
जय तेरी हो स्कन्द माता। पांचवां नाम तुम्हारा आता॥
सबके मन की जानन हारी। जग जननी सबकी महतारी॥
तेरी जोत जलाता रहूं मैं। हरदम तुझे ध्याता रहूं मै॥
कई नामों से तुझे पुकारा। मुझे एक है तेरा सहारा॥
कही पहाड़ों पर है डेरा। कई शहरों में तेरा बसेरा॥
हर मन्दिर में तेरे नजारे। गुण गाए तेरे भक्त प्यारे॥
भक्ति अपनी मुझे दिला दो। शक्ति मेरी बिगड़ी बना दो॥
इन्द्र आदि देवता मिल सारे। करे पुकार तुम्हारे द्वारे॥
दुष्ट दैत्य जब चढ़ कर आए। तू ही खण्ड हाथ उठाए॥
दासों को सदा बचाने आयी। भक्त की आस पुजाने आयी॥
6. कात्यायनी माता की कथा , पूजा विधि, पूजन मंत्र, भोग व महत्व और आरती
कात्यायनी माता की कथा
“कत” नामक एक महान ऋषि थे, उनके पुत्र का नाम कात्या था| इसी गोत्र में महर्षि कात्यायन उत्पन्न हुए थे, जो माँ भगवती अम्बा की बड़ी कठिन तपस्या की थी, उनकी इच्छा थी की माँ दुर्गा, उनके यहाँ पुत्री रूप में प्रकट हो…
माँ दुर्गा ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की, कुछ वर्षों के बाद जब महिषासुर का अत्याचार पृथ्वी पर बढ़ने लगा तब ब्रह्मा विष्णु-महेश ने अपना तेज देकर एक देवी को उत्पन्न किया ऐसा प्रमाण है कि कात्यायन ने सर्वप्रथम उनकी पूजा की थी इसलिए वो कात्यायनी कहलायी।
कुछ ग्रंथों में यह भी प्रमाण हे की महर्षि कात्यायन को माँ दुर्गा ने जो वचन दिया था उस वचन अनुसार उनके यहाँ पुत्री रूप में प्रगट हुई इसलिए उन्हें कात्यायनी कहा जाता है, माँ कात्यायनी अमोघ सिद्धिया देने वाली है, ब्रज की गोपियों ने “भगवान् श्रीकृष्ण को पति रूप में पाने के लिए यमुना नदी के किनारे माँ कात्यायनी की पूजा की थी|
कात्यायनी माता का स्वरूप
माँ कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत चमकीला और भास्वर है। इनकी चार भुजाएँ हैं। माताजी का दाहिनी तरफ का ऊपरवाला हाथ अभयमुद्रा में तथा नीचे वाला वरमुद्रा में है। बाईं तरफ के ऊपरवाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। इनका वाहन सिंह है।
कात्यायनी माता की पूजा विधि
भक्तों को सूर्योदय से पहले उठकर स्नानिद से निवृत होकर स्वच्छ कपड़े पहनने चाहिए। फिर लकड़ी की चौकी पर लाल कपड़ा बिछाकर मां कात्यायनी (दुर्गा मां) की मूर्ति स्थापित करें। मां को रोली और सिंदूर का तिलक लगाएं। फिर मंत्रों का जाप करते हुए कात्यायनी देवी को फूल अर्पित करें और शहद का भोग लगाएं। घी का दीपक जलाकर दुर्गा सप्तशती का पाठ करें। बाद में दुर्गा चालीसा का पाठ कर, आरती करें और मां से सुख- समृद्धि की कामना करें। साथ ही आखिर में प्रसाद सभी लोगों में बांट दें।
कात्यायनी माता का पूजन मंत्र
चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना ।
कात्यायनी च शुभदा देवी दानवघातिनी ॥
माता कात्यायनी की पूजा प्रदोषकाल यानी गोधूली बेला में करना श्रेष्ठ माना गया है। शैलपुत्री सहीत अन्य देवियों की तरह इनकी भी पूजा की जाती है। इनकी पूजा में शहद का प्रयोग जरूर किया जाना चाहिए, क्योंकि मां को शहद बहुत पसंद है। शहद युक्त पान का भोग भी देवी कात्यायिनी को लगता है। देवी कात्यायनी की पूजा में लाल रंग के कपड़ों का भी बहुत महत्व है।
कात्यायनी माता का ध्यान मंत्र
वन्दे वांछित मनोरथार्थचन्द्रार्घकृतशेखराम्।
सिंहारूढचतुर्भुजाकात्यायनी यशस्वनीम्॥
स्वर्णवर्णाआज्ञाचक्रस्थितांषष्ठम्दुर्गा त्रिनेत्राम।
वराभीतंकरांषगपदधरांकात्यायनसुतांभजामि॥
पटाम्बरपरिधानांस्मेरमुखींनानालंकारभूषिताम्।
मंजीर हार केयुरकिंकिणिरत्नकुण्डलमण्डिताम्।।
प्रसन्नवंदनापज्जवाधरांकातंकपोलातुगकुचाम्।
कमनीयांलावण्यांत्रिवलीविभूषितनिम्न नाभिम्॥
कात्यायनी माता का स्तोत्र पाठ
कंचनाभां कराभयंपदमधरामुकुटोज्वलां।
स्मेरमुखीशिवपत्नीकात्यायनसुतेनमोअस्तुते॥
पटाम्बरपरिधानांनानालंकारभूषितां।
सिंहास्थितांपदमहस्तांकात्यायनसुतेनमोअस्तुते॥
परमदंदमयीदेवि परब्रह्म परमात्मा।
परमशक्ति,परमभक्ति्कात्यायनसुतेनमोअस्तुते॥
विश्वकर्ती,विश्वभर्ती,विश्वहर्ती,विश्वप्रीता।
विश्वाचितां,विश्वातीताकात्यायनसुतेनमोअस्तुते॥
कां बीजा, कां जपानंदकां बीज जप तोषिते।
कां कां बीज जपदासक्ताकां कां सन्तुता॥
कांकारहíषणीकां धनदाधनमासना।
कां बीज जपकारिणीकां बीज तप मानसा॥
कां कारिणी कां मूत्रपूजिताकां बीज धारिणी।
कां कीं कूंकै क:ठ:छ:स्वाहारूपणी॥
कात्यायनी माता का कवच मंत्र
कात्यायनौमुख पातु कां स्वाहास्वरूपिणी.
ललाटे विजया पातु मालिनी नित्य सुन्दरी॥
कल्याणी हृदयम् पातु जया भगमालिनी॥
कात्यायनी माता के पूजन का महत्व
देवी कात्यायनी की पूजा करने से भक्तजनों में शक्ति का संचार होता है और वो इनकी कृपा से अपने दुश्मनों का संहार करने में सक्षम हो पाते हैं। इनकी पूजा से हर तरह के संकट दूर हो जाते हैं। मां कात्यायनी की पूजा से अविवाहित लड़कियों के विवाह के योग बनते हैं और सुयोग्य वर भी मिलता है। देवी कात्यायनी की पूजा से रोग, शोक, संताप, भय आदि का नाश हो जाता है। देवी कात्यायनी की पूजा करने से हर तरह का भय भी दूर हो जाता है।
कात्यायनी माता की आरती
जय जय अम्बे, जय कात्यायनी।
जय जगमाता, जग की महारानी।
बैजनाथ स्थान तुम्हारा।
वहां वरदाती नाम पुकारा।
कई नाम हैं, कई धाम हैं।
यह स्थान भी तो सुखधाम है।
हर मंदिर में जोत तुम्हारी।
कहीं योगेश्वरी महिमा न्यारी।
हर जगह उत्सव होते रहते।
हर मंदिर में भक्त हैं कहते।
कात्यायनी रक्षक काया की।
ग्रंथि काटे मोह माया की।
झूठे मोह से छुड़ाने वाली।
अपना नाम जपाने वाली।
बृहस्पतिवार को पूजा करियो।
ध्यान कात्यायनी का धरियो।
हर संकट को दूर करेगी।
भंडारे भरपूर करेगी।
जो भी मां को भक्त पुकारे।
कात्यायनी सब कष्ट निवारे।
बाद में ‘चंद्र हासोज्ज वलकरा शार्दूलवर वाहना।
कात्यायनी शुभंदद्या देवी दानव घातिनी॥ मंत्र को पढ़े……
7. कालरात्रि माता की कथा , पूजा विधि, पूजन मंत्र, भोग व महत्व और आरती
कालरात्रि माता की कथा
एक पौराणिक कथा के अनुसार, एक बहुत बड़ा राक्षस रक्तबीज था| इस दानव ने लोगों के साथ देवताओं को भी परेशान कर रखा था| रक्तबीज दानव की विशेषता यह थी कि जब उसके खून की बूंद (रक्त) धरती पर गिरती थी तो बिलकुल उसके जैसा दानव बन जाता था| दानव की शिकायत लेकर सभी भगवान शिव के पास पहुंचे| भगवान शिव जानते थे कि इस दानव का अंत माता पार्वती कर सकती हैं|
भगवान शिव ने माता से अनुरोध किया| इसके बाद मां पार्वती ने स्वंय शक्ति संधान किया| इस तेज ने मां कालरात्रि को उत्पन्न किया| इसके बाद जब मां दुर्गा ने दैत्य रक्तबीज का अंत किया और उसके शरीर से निकलने वाले रक्त को मां कालरात्रि ने जमीन पर गिरने से पहले ही अपने मुख में भर लिया| इस तरह से देवी मां ने सबका गला काटते हुए दानव रक्तबीज का अंत किया. रक्तबीज का वध करने वाला माता पार्वती का यह रूप कालरात्रि कहलाया|
कालरात्रि माता का स्वरूप
माँ कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है, लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं। इसी कारण इनका एक नाम ‘शुभंकारी’ भी है। अतः इनसे भक्तों को किसी प्रकार भी भयभीत अथवा आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है। माँ कालरात्रि दुष्टों का विनाश करने वाली हैं।
इनका वाहन गर्दभ अर्थात् गधा है। माता कालरात्रि के तीन नेत्र और चार हाथ हैं। एक हाथ में खड्ग है तो दूसरे में लौहास्त्र, तीसरे हाथ में अभय-मुद्रा है और चौथे हाथ में वर-मुद्रा है।
कालरात्रि माता की पूजा विधि
काले रंग का वस्त्र धारण करके या किसी को नुकसान पंहुचाने के उद्देश्य से पूजा ना करें| मां कालरात्रि की पूजा करने के लिए श्वेत या लाल वस्त्र धारण करें| देवी कालरात्रि पूजा ब्रह्ममुहूर्त में ही की जाती है| वहीं तंत्र साधना के लिए तांत्रिक मां की पूजा आधी रात में करते हैं इसलिए सूर्योदय से पहले ही उठकर स्नान आदि से निवृत्त हो जाएं|
पूजा करने के लिए सबसे पहले आप एक चौकी पर मां कालरात्रि का चित्र या मूर्ति स्थापित करें| इसके बाद मां को कुमकुम, लाल पुष्प, रोली आदि चढ़ाएं| माला के रूप में मां को नींबुओं की माला पहनाएं और उनके आगे तेल का दीपक जलाकर उनका पूजन करें|
मां कालरात्रि को को लाल फूल अर्पित करें. मां के मंत्रों का जाप करें या सप्तशती का पाठ करें| मां की कथा सुनें और धूप व दीप से आरती उतारने के बाद उन्हें प्रसाद का भोग लगाएं| अब मां से जाने अनजाने में हुई भूल के लिए माफी मांगें|
मां कालरात्रि दुष्टों का नाश करके अपने भक्तों को सारी परेशानियों व समस्याओं से मुक्ति दिलाती है| इनके गले में नरमुंडों की माला होती है| नवरात्रि के सातवें दिन मां कालरात्रि की पूजा करने से भूत प्रेत, राक्षस, अग्नि-भय, जल-भय, जंतु-भय, शत्रु-भय, रात्रि-भय आदि सभी नष्ट हो जाते हैं|
मां कालरात्रि को लगाएं ये भोग-
देवी कालरात्रि को काली मिर्च, कृष्णा तुलसी या काले चने का भोग लगाया जाता है| वैसे नकारात्मक शक्तियों से बचने के लिए आप गुड़ का भोग लगा सकते हैं| इसके आलावा नींबू काटकर भी मां को अर्पित कर सकते हैं|
मां कालरात्रि की स्तुति
‘ओम ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै ऊं कालरात्रि दैव्ये नम:।’
मां कालरात्रि का पूजन मंत्र
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी॥
मां कालरात्रि का ध्यान मंत्र
करालवंदना धोरां मुक्तकेशी चतुर्भुजाम्।
कालरात्रिं करालिंका दिव्यां विद्युतमाला विभूषिताम॥
दिव्यं लौहवज्र खड्ग वामोघोर्ध्व कराम्बुजाम्।
अभयं वरदां चैव दक्षिणोध्वाघः पार्णिकाम् मम॥
महामेघ प्रभां श्यामां तक्षा चैव गर्दभारूढ़ा।
घोरदंश कारालास्यां पीनोन्नत पयोधराम्॥
सुख पप्रसन्न वदना स्मेरान्न सरोरूहाम्।
एवं सचियन्तयेत् कालरात्रिं सर्वकाम् समृध्दिदाम्॥
स्तोत्र पाठ हीं कालरात्रि श्री कराली च क्लीं कल्याणी कलावती।
कालमाता कलिदर्पध्नी कमदीश कुपान्विता॥
कामबीजजपान्दा कमबीजस्वरूपिणी।
कुमतिघ्नी कुलीनर्तिनाशिनी कुल कामिनी॥
क्लीं हीं श्रीं मन्त्र्वर्णेन कालकण्टकघातिनी।
कृपामयी कृपाधारा कृपापारा कृपागमा॥
मां कालरात्रि का स्तोत्र पाठ
हीं कालरात्रि श्रींकराली चक्लींकल्याणी कलावती।
कालमाताकलिदर्पध्नीकमदींशकृपन्विता॥
कामबीजजपान्दाकमबीजस्वरूपिणी।
कुमतिघ्नी कुलीनार्तिनशिनीकुल कामिनी॥
क्लींहीं श्रींमंत्रवर्णेनकालकण्टकघातिनी।
कृपामयीकृपाधाराकृपापाराकृपागमा॥
मां कालरात्रि का कवच मंत्र
ऊँ क्लीं मे हृदयं पातु पादौ श्रीकालरात्रि।
ललाटे सततं पातु तुष्टग्रह निवारिणी॥
रसनां पातु कौमारी, भैरवी चक्षुषोर्भम।
कटौ पृष्ठे महेशानी, कर्णोशंकरभामिनी॥
वर्जितानी तु स्थानाभि यानि च कवचेन हि।
तानि सर्वाणि मे देवीसततंपातु स्तम्भिनी॥
मां कालरात्रि के पूजन का महत्व
मां कालरात्रि जीवन में आने वाले संकटों से रक्षा करती हैं| मां कालरात्रि शत्रु और दुष्टों का संहार करती हैं| मां कालरात्रि की पूजा से तनाव, भय और बुरी शक्तिओं से मुक्ति मिलती है| मां कालरात्रि की पूजा से हर पाप से मुक्ति मिलती है और शत्रुओं का नाश होता है| मां कालरात्रि की पूजा करने से जीवन में आने वाली परेशानियां दूर होती हैं| मां कालरात्रि को रातरानी का पुष्प अर्पित करना शुभ माना जाता है| मां को लाल रंग प्रिय है|
मां कालरात्रि की आरती
कालरात्रि जय-जय-महाकाली।
काल के मुह से बचाने वाली।
दुष्ट संघारक नाम तुम्हारा।
महाचंडी तेरा अवतार।
पृथ्वी और आकाश पे सारा।
महाकाली है तेरा पसारा।
खड्ग खप्पर रखने वाली।
दुष्टों का लहू चखने वाली।
कलकत्ता स्थान तुम्हारा।
सब जगह देखूं तेरा नजारा।
सभी देवता सब नर-नारी।
गावें स्तुति सभी तुम्हारी।
रक्तदंता और अन्नपूर्णा।
कृपा करे तो कोई भी दुःख ना।
ना कोई चिंता रहे बीमारी।
ना कोई गम ना संकट भारी।
उस पर कभी कष्ट ना आवें।
महाकाली मां जिसे बचावे।
तू भी भक्त प्रेम से कह।
कालरात्रि मां तेरी जय।
8. महागौरी माता की कथा , पूजा विधि, पूजन मंत्र, भोग व महत्व और आरती
महागौरी माता की कथा
मां दुर्गा के आठवें स्वरूप महागौरी को लेकर दो पौराणिक कथाएं काफी प्रचलित हैं। पहली पौराणिक कथा के अनुसार पर्वतराज हिमालय के घर जन्म लेने के बाद मां पार्वती ने पति रूप में भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी। तपस्या करते समय माता हजारों वर्षों तक निराहार रही थी, जिसके कारण माता का शरीर काला पड़ गया था।
वहीं माता की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने मां पार्वती को पत्नी के रूप में स्वीकार किया और माता के शरीर को गंगा के पवित्र जल से धोकर अत्यंत कांतिमय बना दिया, माता का रूप गौरवर्ण हो गया। जिसके बाद माता पार्वती के इस स्वरूप को महागौरी कहा गया।
वहीं दूसरी पौराणिक कथा के अनुसार कालरात्रि के रूप में सभी राक्षसों का वध करने के बाद भोलेनाथ ने देवी पार्वती को मां काली कहकर चिढ़ाया था। माता ने उत्तेजित होकर अपनी त्वचा को पाने के लिए कई दिनों तक कड़ी तपस्या की और ब्रह्मा जी को अर्घ्य दिया। देवी पार्वती से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने हिमालय के मानसरोवर नदी में स्नान करने की सलाह दी।
ब्रह्मा जी के सलाह को मानते हुए मां पार्वती ने मानसरोवर में स्नान किया। इस नदी में स्नान करने के बाद माता का स्वरूप गौरवपूर्ण हो गया। इसलिए माता के इस स्वरूप को महागौरी कहा गया। आपको बता दें मां पार्वती ही देवी भगवती का स्वरूप हैं।
महागौरी माता का स्वरूप
मां दुर्गा की आठवीं शक्ति देवी महागौरी है। इनका स्वरूप अत्यंत सौम्य है। मां गौरी का ये रूप बेहद सरस, सुलभ और मोहक है। देवी महागौरी का अत्यंत गौर वर्ण हैं। इनके वस्त्र और आभूषण आदि भी सफेद ही हैं। इनकी चार भुजाएं हैं। महागौरी का वाहन बैल है। देवी के दाहिने ओर के ऊपर वाले हाथ में अभय मुद्रा और नीचे वाले हाथ में त्रिशूल है। बाएं ओर के ऊपर वाले हाथ में डमरू और नीचे वाले हाथ में वर मुद्रा है। इनका स्वभाव अति शांत है।
महागौरी माता की पूजा विधि
सूर्योदय से पहले स्नान कर साफ और सुंदर वस्त्र धारण करें। सबसे पहले एक लकड़ी की चौकी पर लाल वस्त्र बिछाकर गंगा जल छिड़ककर शुद्ध करें, फिर माता की मूर्ती स्थापित करें। माता को पंचामृत से स्नान कराएं। गणेश पूजन और कलश पूजन के बाद मां महागौरी की पूजा प्रारंभ करें। माता को गुड़हल का फूल, अक्षत, कुमकुम, सिंदूर, पान, सुपारी आदि अर्पित करें और माता का श्रंगार कर मिठाई का भोग लगाएं। इसके बाद धूप, दीप, अगरबत्ती कर महागौरी की पूजा का पाठ करें। फिर अंत में माता की आरती करें।
महागौरी माता का पूजन मंत्र
श्वेते वृषे समरूढ़ा श्वेताम्बराधरा शुचि:
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा।।
या देवी सर्वभूतेषु मां गौरी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नम:।।
ओम देवी महागौर्यै नम:।।
महागौरी माता का ध्यान मंत्र
वन्दे वांछित कामार्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा महागौरी यशस्वीनाम्।।
पूर्णन्दु निभां गौरी सोमचक्रस्थिता अष्टमं महागौरी त्रिनेत्राम्।
वराभीतिकरां त्रिशूल डमरूधरां महागौरी भजेम्।
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर किंकिणी रत्नकुण्डल मण्डिताम्।।
प्रफुल्ल वंदना पल्ल्वाधरां कतं कपोलां त्रैलोक्य मोहनम्।
कमनीया लावण्या मृणांल चंदनगंधलिप्ताम्।
महागौरी माता का स्तुति मंत्र
या देवी सर्वभूतेषु मां गौरी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नम:।।
महागौरी माता का स्तोत्र पाठ
सर्वसंकट हंत्रीत्वंहिधन ऐश्वर्य प्रदायनीम्।
ज्ञानदाचतुर्वेदमयी,महागौरीप्रणमाम्यहम्॥
सुख शांति दात्री, धन धान्य प्रदायनीम्।
डमरूवाघप्रिया अघा महागौरीप्रणमाम्यहम्॥
त्रैलोक्यमंगलात्वंहितापत्रयप्रणमाम्यहम्।
वरदाचैतन्यमयीमहागौरीप्रणमाम्यहम्॥
महागौरी माता का कवच मंत्र
ओंकार: पातुशीर्षोमां, हीं बीजंमां ह्रदयो।
क्लींबीजंसदापातुन भोगृहोचपादयो।।
ललाट कर्णो हूं बीजंपात महागौरीमां नेत्र घ्राणों।
कपोल चिबुकोफट् पातुस्वाहा मां सर्ववदनो।
महागौरी माता के पूजन का महत्व
नवरात्रि के आठवें दिन मां महागौरी की पूजा करने से सभी पाप धुल जाते है। जिससे मन और शरीर हर तरह से शुद्ध हो जाता है। देवी महागौरी भक्तों को सदमार्ग की ओर ले जाती है। इनकी पूजा से अपवित्र व अनैतिक विचार भी नष्ट हो जाते हैं। देवी दुर्गा के इस सौम्य रूप की पूजा करने से मन की पवित्रता बढ़ती है। जिससे सकारात्मक ऊर्जा भी बढ़ने लगती है। देवी महागौरी की पूजा करने से मन को एकाग्र करने में मदद मिलती है। इनकी उपासना से सभी कष्ट दूर हो जाते हैं।
महागौरी माता की आरती
जय महागौरी जगत की माया।
जय उमा भवानी जगत की महामाया।
हरिद्वार कनखल के पासा।
महागौरी तेरा वहां निवासा।
चंद्रकली और ममता अम्बे।
जय शक्ति जय जय मां जगदम्बे।
भीमा देवी विमला माता।
कोशकी देवी जग विख्याता।
हिमाचल के घर गौरी रूप तेरा।
महाकाली दुर्गा है स्वरूप तेरा।सती संत हवन कुंड में था जलाया।
उसी धुएं ने रूप काली बनाया।
बना धर्म सिंह जो सवारी में आया।
तो शंकर ने त्रिशूल अपना दिखाया।
तभी मां ने महागौरी नाम पाया।
शरण आने वाले संकट मिटाया।
शनिवार की तेरी पूजा जो करता।
मां बिगड़ा हुआ काम उसका सुधरता।
भक्त बोलो तो सच तुम क्या रहे हो।
महागौरी मां तेरी हरदम ही जय हो।
9. सिद्धिदात्री माता की कथा , पूजा विधि, पूजन मंत्र, भोग व महत्व और आरती
सिद्धिदात्री माता की कथा
एक पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान शिव ने मां सिद्धिदात्री की कठोर तपस्या कर आठों सिद्धियों को प्राप्त किया था। साथ ही मां सिद्धिदात्री की कृपा ने भगवान शिव का आधा शरीर देवी हो गया था और वह अर्धनारीश्वर कहलाए।
मां दुर्गा का यह अत्यंत शक्तिशाली स्वरूप है। शास्त्रों के अनुसार, देवी दुर्गा का यह स्वरूप सभी देवी-देवताओं के तेज से प्रकट हुआ है। कहते हैं कि दैत्य महिषासुर के अत्याचारों से परेशान होकर सभी देवतागणम भगवान शिव और प्रभु विष्णु के पास गुहार लगाने गए थे। तब वहां मौजूद सभी देवतागण से एक तेज उत्पन्न हुआ। उस तेज से एक दिव्य शक्ति का निर्माण हुआ। जिन्हें मां सिद्धिदात्री के नाम से जाते हैं।
सिद्धिदात्री माता का स्वरूप
मां सिद्धिदात्री कमल के फूल पर विराजमान हैं और उनकी चार भुजाएँ हैं। मां सिद्धिदात्री की सवारी सिंह हैं। देवी ने सिद्धिदात्री का यह रूप भक्तों पर अनुकम्पा बरसाने के लिए धारण किया है। देवता, ऋषि-मुनि, असुर, नाग, मनुष्य सभी मां के भक्त हैं।
सिद्धिदात्री माता की पूजा विधि
नवरात्रि की नवमी तिथि को माता सिद्धिदात्री को प्रसाद, नवरस युक्त भोजन, नौ प्रकार के पुष्प और नौ प्रकार के ही फल अर्पित करने चाहिए। सर्वप्रथम कलश की पूजा व उसमें स्थपित सभी देवी-देवताओं का ध्यान करना चाहिए। इसके बाद माता के मंत्रो का जाप कर उनकी पूजा करनी चाहिए।
इस दिन भक्तों को अपना सारा ध्यान निर्वाण चक्र की ओर लगाना चाहिए। यह चक्र हमारे कपाल के मध्य में स्थित होता है। ऐसा करने से भक्तों को माता सिद्धिदात्री की कृपा से उनके निर्वाण चक्र में उपस्थित शक्ति स्वतः ही प्राप्त हो जाती है।
मान्यता है कि मां सिद्धिदात्री को मौसमी फल, चना, पूड़ी, खीर, नारियल और हलवा अतिप्रिय है। कहते हैं कि मां को इन चीजों का भोग लगाने से वह प्रसन्न होती हैं।
सिद्धिदात्री माता का पूजन मंत्र
सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि,
सेव्यमाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।
ओम सिद्धिदात्र्यै नम:।
विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा:
स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरकिम्बयैतत्
का ते स्तुति: स्तव्यपरा परोक्ति:।।
सर्वभूता यदा देवी स्वर्गमुक्ति प्रदायिनी।
त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तय:।।
नन्दगोप गृहे जाता योशोदा-गर्भ-सम्भवा।
ततस्तौ नाशयिष्यामि, विन्ध्याचल निवासिनी।।
या देवी सर्वभूतेषु मां सिद्धिदात्री रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
सिद्धिदात्री माता का ध्यान मंत्र
वन्दे वांछित मनोरथार्थ चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
कमलस्थितां चतुर्भुजा सिद्धीदात्री यशस्वनीम्॥
स्वर्णावर्णा निर्वाणचक्रस्थितां नवम् दुर्गा त्रिनेत्राम्।
शख, चक्र, गदा, पदम, धरां सिद्धीदात्री भजेम्॥
पटाम्बर, परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रफुल्ल वदना पल्लवाधरां कातं कपोला पीनपयोधराम्।
कमनीयां लावण्यां श्रीणकटि निम्ननाभि नितम्बनीम्॥
सिद्धिदात्री माता का स्तोत्र पाठ
कंचनाभा शखचक्रगदापद्मधरा मुकुटोज्वलो।
स्मेरमुखी शिवपत्नी सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
पटाम्बर परिधानां नानालंकारं भूषिता।
नलिस्थितां नलनार्क्षी सिद्धीदात्री नमोअस्तुते॥
परमानंदमयी देवी परब्रह्म परमात्मा।
परमशक्ति, परमभक्ति, सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
विश्वकर्ती, विश्वभती, विश्वहर्ती, विश्वप्रीता।
विश्व वार्चिता विश्वातीता सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
भुक्तिमुक्तिकारिणी भक्तकष्टनिवारिणी।
भव सागर तारिणी सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
धर्मार्थकाम प्रदायिनी महामोह विनाशिनी।
मोक्षदायिनी सिद्धीदायिनी सिद्धिदात्री नमोअस्तुते॥
सिद्धिदात्री माता का कवच मंत्र
ओंकार: पातुशीर्षोमां, ऐं बीजंमां हृदयो ।
हीं बीजंसदापातुनभोगृहोचपादयो ॥
ललाट कर्णोश्रींबीजंपातुक्लींबीजंमां नेत्र घ्राणो ।
कपोल चिबुकोहसौ:पातुजगत्प्रसूत्यैमां सर्व वदनो ॥
सिद्धिदात्री माता का स्तुति मंत्र
या देवी सर्वभूतेषु माँ सिद्धिदात्री रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
सिद्धिदात्री माता के पूजन का महत्व
शास्त्रों के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व नामक आठ सिद्धियां हैं। ये सभी सिद्धियां मां सिद्धिदात्री की आराधना से प्राप्त की जा सकती हैं। हनुमान चालीसा में भी अष्टसिद्धि नव निधि के दाता कहा गया है।
सिद्धिदात्री माता का नंदा पर्वत पर है प्रसिद्ध तीर्थ
हिमाचल का नंदा पर्वत माता सिद्धिदात्री का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है। मान्यता है कि जिस प्रकार इस देवी की कृपा से भगवान शिव को आठ सिद्धियों की प्राप्ति हुईं, ठीक उसी तरह इनकी उपासना करने से अष्ट सिद्धि और नव निधि, बुद्धि और विवेक की प्राप्ति होती है।
सिद्धिदात्री माता की आरती
जय सिद्धिदात्री मां तू सिद्धि की दाता । तू भक्तों की रक्षक तू दासों की माता ।।
तेरा नाम लेते ही मिलती है सिद्धि । तेरे नाम से मन की होती है शुद्धि ।।
कठिन काम सिद्ध करती हो तुम । जभी हाथ सेवक के सिर धरती हो तुम ।।
तेरी पूजा में तो ना कोई विधि है । तू जगदंबे दाती तू सर्व सिद्धि है ।।
रविवार को तेरा सुमिरन करे जो । तेरी मूर्ति को ही मन में धरे जो ।।
तू सब काज उसके करती है पूरे । कभी काम उसके रहे ना अधूरे ।।
तुम्हारी दया और तुम्हारी यह माया । रखे जिसके सिर पर मैया अपनी छाया ।।
सर्व सिद्धि दाती वह है भाग्यशाली । जो है तेरे दर का ही अंबे सवाली ।।
हिमाचल है पर्वत जहां वास तेरा । महा नंदा मंदिर में है वास तेरा ।।
मुझे आसरा है तुम्हारा ही माता । भक्ति है सवाली तू जिसकी दाता ।।
नवमी के दिन देवी की पूजा के बाद कन्याओं की पूजा करने के बाद विधिवत विदाई कराना चाहिए। माना जाता है कि देवी की विदाई उसी तरह करने चाहिए जैसे बेटी की विदाई की जाती है।
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