मानव और प्रकृति
छा चुका है घोर अंधेरा, मानवता के दरवाजे पर,, रो रही है पृथ्वी बेचारी, अपने कर्म के विधानों पर,, खो दिया है उसने प्रेम सागर, आज, वर्तमान के लालचियों पर,,…
आइये कुछ नया करते हैं
छा चुका है घोर अंधेरा, मानवता के दरवाजे पर,, रो रही है पृथ्वी बेचारी, अपने कर्म के विधानों पर,, खो दिया है उसने प्रेम सागर, आज, वर्तमान के लालचियों पर,,…
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