bjp trying to win battle of up and uttarakhand 150 leaders will take over the reins of assembly elec 1639911260

By SHUBHAM ROY

भाजपा..दीपक की लौ से कमल के खुशबू तक का सफर…तारीख, बिल्कुल आज से दो दिन पहले वाला, यानि 6 अप्रैल और वर्ष था 1980 का। जगह, नई दिल्ली का फिरोजशाह कोटला स्टेडियम। दिमाग में जरूर आया होगा आखिर तारीख क्यों, तो सुनिए तारीख इसलिए क्योंकि यह तारीख उस दिन के बाद कैलेंडर के अप्रैल महीने वाले पन्ने के साथ इतिहास के पन्नों पर भी दर्ज होने वाला था।

भारतीय राजनीति में इमरजेंसी की काली अध्याय के बाद जिस पहले गैर कांग्रेसी सरकार का उदय हुआ था वह अपने अस्त की ओर था। 1980 के आम चुनाव में जनता पार्टी चुनाव हार जाती है वह भी बुरी तरह। पार्टी हारी थी, तो हार का ठीकरा तो फूटने ही थे।

हार का ठीकरा फोड़ा जाता है मात्र 3 साल पहले जनता पार्टी में खुद को विलीन कर देने वाली पार्टी के नेताओं पर, भारतीय जनसंघ के नेताओं पर। यानी कहा यह जाता है कि या तो आप आरएसएस के सदस्य रहे या फिर जनता पार्टी का। दोनों राहों के राहगीरों का जनता पार्टी में कोई जगह नहीं है।

फिर क्या था उस समय पर जनसंघ के कर्ता-धर्ता रहे अटल, आडवाणी ने अपने राजनीतिक आका श्यामा प्रसाद मुखर्जी के ‘एक देश, एक निशान, एक विधान, एक प्रधान’ और ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ को अपना नया लक्ष्य बना स्टेडियम के बड़ी भीड़ को संबोधित करते हुए भारतीय जनता पार्टी के नाम की घोषणा कर दी। नाम में बस इतना बदला था कि जनता पार्टी के पहले केवल भारतीय लग गया और भगवे झंडे पर दीये का स्थान कमल ने ले लिया। पार्टी भी बन गई और एक बार फिर से तैयारी भी शुरू हो गई।

जनसंघ के सपनों को साकार करने का, 84 के आम चुनाव का। लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था, इसी वर्ष इंदिरा गांधी की हत्या हो जाती है और इसकी सहानुभूति का असर इतना बड़ा होता है कि 84 के आम चुनाव में कांग्रेस को अविश्वसनीय जीत मिलती है और इस नई नवेली पार्टी को करारी हार। हार इतनी करारी की वाजपेयी, आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और प्रमोद महाजन सरीखे नेता चुनाव हार गए।

पार्टी 229 सीटों पर चुनाव लड़ केवल 2 सीट ही जीत पाई।साल 1989, राजीव सरकार पर बोफोर्स के लगे दाग को बीजेपी ने एक मौके की तरह भुनाया और इस बार 85 सीटों पर जीत दर्ज की। यहीं से पार्टी को एक संजीवनी मिल गई और चुनाव-दर-चुनाव पार्टी के क्षेत्र विस्तार के साथ-साथ सीटों की संख्या भी आरोह गति करने लगी।

1996,161 सीटों के साथ पार्टी को सत्ता का स्वाद चखने का मौका मिला लेकिन सत्ता का यह स्वाद गले से नीचे उतरने से पहले ही फीकी पड़ गई, मात्र 13 दिन बाद ही वाजपेई को इस्तीफा देना पड़ा। साल 1998, राजनीतिक अस्थिरता के बाद देश एक बार फिर से आम चुनाव के मुहाने पर था। बीजेपी इस बार अपने नए रूप में थी, एनडीए वाला रूप।

272 सीटों पर एनडीए जीत दर्ज करती है और एक बार फिर से सरकार बनाती है, लेकिन यह सरकार कई पार्टियों के रहमो-करम पर टिकी थी और हुआ भी वही, जिसका डर था एआईडीएमके ने अपना समर्थन वापस ले लिया और मात्र 13 महीने बाद केवल 1 वोट के कारण वाजपेई को एक बार फिर से इस्तीफा देना पड़ा।

वर्ष 1999, देश में आम चुनाव का त्योहारी शुरू हो गया था, अपनी पहले प्रयोग में काफी हद तक सफल एनडीए एक बार फिर से उसी रूप में(एआईडीएमके के बिना) मैदान में थी। पार्टी के पास करीब एक वर्ष की पूँजी थी कारगिल युद्ध विजय और यह पूंजी काम भी आया।

“विदेशी सोनिया और स्वदेशी अटल” वाले नारे के साथ पार्टी 303 (बीजेपी 183) सीटों के साथ एक बार फिर से सरकार बनाती है। पहली बार बल्कि कहें तो लगभग दशकों बाद स्थिर सरकार चलने लगती है। अब आता है साल 2004, साथ में एनडीए के ‘शाइनिंग इंडिया’ वाला नारा भी। लेकिन कांग्रेस अब कांग्रेस नहीं यूपीए बन चुका होता है।

चुनाव परिणाम, एकदम चौकानेवाले। बीजेपी की आरोही गति एकदम मंद पड़ती प्रतीत होने लगती है। पार्टी केवल 138 सीट ही जीत पाती है और सत्ता से बेदखल हो जाती है, और वह भी इस तरह की आडवाणी के’ पीएम इन वेटिंग’ वाला टिकट 2009 में भी कंफर्म नहीं हो पाती। पार्टी और नीचे खिसक जाती है। हालांकि हतोत्साहित करने वाली इन परिणामों के बावजूद पार्टी का कारवां आगे बढ़ता है।

14 का आम चुनाव। चेहरा विहीन विपक्ष, बीजेपी के पास नरेंद्र मोदी का चेहरा। वह चेहरा, जिनके अच्छे दिन का नारा जनता को खूब भाता है और चुनाव परिणाम केवल जीत नहीं एक लहर सा प्रतीत होने लगता है। बीजेपी अपने दम पर 283 सीटें जीत पूर्ण बहुमत हासिल कर लेती है। देखते-देखते मोदी का तो जादू – सा चल जाता है और 2019 के आम चुनाव में तो यह आंकड़ा 303 तक पहुंच जाता है।

कभी भारत के नक्शे पर एक छोटा तिल – सा प्रतीत होने वाला है भगवा रंग आज करीब 18(12 स्वयं +6 गठबंधन के साथ) राज्यों को भगवा-मय कर चुका है। 2 से 303 के सफर तक पहुंच चुका है। कभी मात्र 7.5% लोगों का पसंद, आज करीब 37.5% लोगों का पसंद बन चुका है ।आखिर भविष्य का तो पता भविष्य में ही चलता है जैसे मेरा ,आपका, हम सब के भविष्य का।

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