भली लड़कियाँ बुरी लड़कियाँ- अनु सिंह चौधरी

अपना रण

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(भली लड़कियाँ बुरी लड़कियाँ)

भली लड़कियाँ बुरी लड़कियाँ…… अनु सिंह चौधरी द्वारा लिखा गया यह उपन्यास…..भली लड़कियाँ बुरी लड़कियाँ…… किसी छोटे से शहर से निकलकर, बड़े और अजनबी शहर में बसने और जीवन यापन के लिए किए गए जद्दोजहद के तरफ इशारा करता है.

आप इस पुस्तक के नाम से एक बार छलावे में आ सकते हैं पर असल में कहा जाए तो यह पुस्तक समाज के उस आईने के रूप में है जिसे पहनकर आप समाज के उस सत्य को देख और महसूस कर सकते हैं जिसे आपने केवल अखबारों या टेलिविज़न पर ही शायद देखा हो.

खैर, जब मैने यह उपन्यास पढ़ना शुरू किया तो मुझे ऐसा लगा कि अनु सिंह ने एक आम जिंदगी से जुड़ी कहानी को प्रस्तुत किया है. जिसमें पूजा प्रकाश नाम की लड़की अपने दादी के साथ में रहकर वहीं से शिक्षा ग्रहण कर रही है. उसकी दादी उसे पढ़ा लिखाकर अच्छे पद पर बैठते हुए देखना चाहती हैं ऐसे में वह उसे घर के काम से दूर ही रखती हैं.

इसी के साथ पूजा प्रकाश छः महीने में अठ्ठारह वर्ष की होने वाली है जिसको लेकर वह अपने दादी को हमेंशा ताने मारती रहती है कि, वह हर चीज कुछ दिनों में कर सकेगी जिसके लिए उसकी दादी उसे रोकते हुए आयी हैं. (भली लड़कियाँ बुरी लड़कियाँ)

12वीं के बाद न चाहते हुए भी दादी पूजा प्रकाश को आगे पढ़ाई में कोई बाधा उत्पन्न न होने के लिए दिल्ली भेज देती हैं. जहाँ पहली बार पूजा प्रकाश छोटे शहर से निकलकर आई होती है. पूजा प्रकाश के दिल्ली आने से लेकर यहां बसने के जद्दोजहद को लेकर जिस तरह से उपन्यास को पिरोया गया है वह सराहनीय है.

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वास्तव में यह उपन्यास समाज में हर पल ग्रसित हो रहे उस प्रतिबिम्ब के छाए की तरह है, जिसे चाहे या अनचाहे रूप में कुछ लोगों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है तो वहीं कुछ लोग उससे भिड़ कर अपना मुकाम हासिल करने में लग जाते है. ठीक यही समस्या पूजा प्रकाश के साथ भी अपने छोटे से कस्बे से निकलकर दिल्ली आने पर हुई. (भली लड़कियाँ बुरी लड़कियाँ)

पहले तो रूम ढूढ़ने की समस्या फिर वहां पर अन्य रूम-मेट से तालमेल की समस्या, भाषा की समस्या, खान-पान की समस्या वहाँ के वातावरण में घुलने और राजनीति से खुद से पार पाने की समस्या. आदि ऐसी कई समस्याओं ने इस उपन्यास को अंत तक पिरोये रखा है. जो कि आपको इस पुस्तक को पढ़ने के बाद ही पता चलेगा. (भली लड़कियाँ बुरी लड़कियाँ)

वास्तव में यह उपन्यास नाटकीय रूप धारण कर अपने यात्रा का प्रारंभ अवश्य करता है पर जैसे-जैसे उपन्यास का प्लाट आगे की तरफ बढ़ता है वैसे-वैसे नाटकीयता का स्तर में भी चढ़ाव आता जाता है और अपने हक और स्वतंत्रता के लिए लड़ाई और जद्दोजहद करते हुए कब कहानी अपने अंतिम मोड़ पर आ जाती है इसका अंदाजा शायद ही पाठक वर्ग अंतिम समय तक भाप पाए. खैर मुझे ऐसे अंत से झुझलाहट महसूस होती है पर फिर भी अंत में एक नए अध्याय के शुरुआत का पैगाम मन को शांति की अनुभूति करवाता है.

अगर आप 16 से 28 वर्ष के बीच में हैं तो यह पुस्तक आपको आपके बीते हुए और आने वाले कल के प्रतिबिंब के रूप में दिख सकती है . अन्य उम्र के पाठक वर्ग को यह पुस्तक उबाऊ लग सकती है पर वे इस पुस्तक को एक रोचकात्मक लेख के रूप में पढ़कर आने वाली समस्याओं से दो-चार हाथ, पूजा प्रकाश और उनकी सहेलियों की तरह अन्याय के विरुद्ध कर सकते हैं. जिसने उन्हें किरायेदार वाली आंटी और कॉलेज का रोल-मॉडल बना दिया. (भली लड़कियाँ बुरी लड़कियाँ)

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