लियो टॉलस्टॉय: एक संत जिससे गांधी बेहद प्रभावित हुए

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रूस के अद्वितीय लेखक लियो टॉलस्टॉय रूस के एक सम्पन्न परिवार में पैदा हुए. जिनके हिस्से में कई गांव और खलिहान थे. साहित्यिक विरासत के तौर पर युद्ध और शांति, अन्ना कार्निना तथा अन्य उम्दा लेखन के साथ साथ उनके पास विस्तृत पाठक वर्ग था और अभी भी है. एक परिवार के रूप में एक खूबसूरत पत्नी जो उनसे उम्र में कई वर्ष छोटी थी और कई बच्चे. यूं एक वाक्य में कहा जाए तो लियो टॉलस्टॉय के पास एक उन्नत और खुशहाल जीवन व्यतीत करने के लिए वह सब कुछ था. जिनकी आम लोग मात्र कल्पना कर सकते हैं.

लेकिन जब मैं लियो टॉलस्टॉय की जीवन की गहराई में उतरा तो जो दृश्य मैंने देखा और जीवनी में वर्णित शब्द दर शब्द जिन शब्दों को पढ़ा. मैं भीतर तक सहम गया. एक निचाट सूनेपन और घोर अंधकार ने मुझे घेर लिया. मैं पुस्तक को बगल में रखकर अपना माथा पकड़कर बैठे रहा. थोड़ी ही देर में आँसुओं की धारा मेरी आँखों से अनवरत बहने लगी.

इतनी भीतरी गहराई से मैंने लियो टॉलस्टॉय से पहले किसी लेखक को महसूस नहीं किया था. शायद यही कारण है कि भारत के संविधान निर्माता डॉ. भीम राव अंबेडकर की पसंदीदा पुस्तकों में लियो टॉलस्टॉय की जीवनी उन्हें सर्वाधिक प्रिय है और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में शांति एवं अहिंसा के प्रवर्तक मोहनदास करमचंद गांधी जी लियो टॉलस्टॉय के जीवन से प्रेरणा लेते थे और उनसे पत्र व्यवहार किया करते थे.

टॉलस्टॉय का जीवन ऊपर से देखने पर इतना आकर्षक एवं खुशहाल लगता है. जैसे किसी इंद्रधनुषी प्रस्फुटन से आसमान आलौकिक प्रतीत होता है. लेकिन जब हम तोल्सतोय के बिल्कुल करीब बैठते हैं तो उनके शरीर से पीड़ा, पश्चाताप, अंतर्द्वंद्व एवं सूनेपन की गंध आती है. जो हमें अश्रुपूरित कर देती है.

टॉलस्टॉय के पास पत्नी, बच्चे, दोस्त तथा विश्व में एक प्रसिद्ध लेखक की हैसियत थी तो फिर लियो टॉलस्टॉय किस प्रकार के सूनेपन से घिरे हुए थे? तोल्सतोय शारीरिक एवं व्यवहारिक रूप से सम्पन्न थे तो फिर वह किस पीड़ा से गुज़र रहे थे? इतने प्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति को आखिर कौन सी घटना या बात पश्चाताप की अग्नि में जला रही थी?

टॉलस्टॉय के पास बैठने पर एक नज़र में हमारे भीतर सम्भवतः उपरोक्त सवाल जवाब उमड़ते हैं. जो हमारी छिछली सोच को दर्शाते हैं. लेकिन जब हम गहराई से सोचते हैं जैसा कि अमूमन एक साधारण मनुष्य करने से चूक जाता है. तब हमें गहराई में जाने का पथ दिखाई देता है और जिस पर चलते हुए हम वह देख पाते हैं जिसे देखने या जिसके होने की हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं.

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अपनी पुस्तक ‘माई कन्फेशन’ में टॉलस्टॉय ने अपने आत्म-दर्शन पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि मेरी शिक्षा ईसाई धर्म के अंतर्गत हुई थी. मेरे बचपन, लड़कपन और जवानी में मुझे वही सिखाया गया था, लेकिन अट्ठारह साल की उम्र में, जब दूसरे साल मैंने विश्वविद्यालय छोड़ा, तो अब तक जो कुछ सीखा था, उस पर से मेरा विश्वास जाता रहा. युवावस्था में ऐसा कोई पाप नहीं था जो मैंने न किया हो. इस सबके बावजूद अपने मित्रों के बीच मैं चरित्रवान समझा जाता था. दस बरस तक जिंदगी का यह दौर चलता रहा.

“मैं क्या जानता हूँ और क्या सिखा सकता हूँ?” स्वाभाविक रूप से मन में उठने वाले इस सवाल के जवाब को टालने के लिए हमने अपने सिद्धांत में यह सूत्र जोड़ दिया था कि कलाकार को यह सब जानना आवश्यक नहीं है, कवि और कलाकार तो अनजाने में ही शिक्षा देते हुए चलते हैं. मैं स्वयं एक अद्भुत कलाकार माना जाता था, इसलिए स्वाभाविक रूप से मैंने इस सिद्धांत को अपना लिया था.

एक कलाकार और लेखक होने के नाते मैं वह सब कुछ लिखवाया और सिखाया करता था, जिसे मैं स्वयं भी नहीं जानता था. यह सब करने के लिए मुझे पैसे मिलते थे. मैं एक आलीशान टेबल रखा करता था और निहायत उम्दा मकान में रहा करता था. मेरे आस पास औरतें थीं, सोसायटी थी, मैं कीर्ति का धनी था. तब स्वाभाविक है कि जो कुछ शिक्षा मैं देता था, वह अच्छी ही होती थी.

आज जब मैं उन दिनों के बारे में सोचता हूँ और अपनी उन दिनों की मनोदशा और वर्तमान के दूसरे लोगों की मनोदशा के बारे में सोचता हूँ (आज भी जो मनोदशा आम तौर पर हजारों लोगों में पाई जाती है) तो मुझे यह सब बहुत दयनीय, भयानक और हास्यास्पद दिखाई पड़ता है. यह चीज मन में कुछ इसी तरह का भाव जगाती है, जैसा भाव किसी पागलखाने के पास से गुजरते हुए हमारे दिलों में पैदा होता है.

इस प्रकार मेरा जीवन बीतने लगा, मगर लगभग पाँच साल बाद एक विचित्र प्रकार की मनः स्थिति मुझ पर हावी होने लगी. मेरे जीवन में रह-रहकर उलझन के क्षण आने लगे. तब अचानक मुझे ऐसा महसूस होने लगता था मानो जीवन की रफ्तार ठिठककर रह गई हो. मेरी समझ में नहीं आता था कि मुझे कैसे जीना चाहिए, मुझे क्या करना चाहिए.

मैं लक्ष्यविहीन होकर इधर-उधर भटकने लगा और मेरी चेतना धीरे-धीरे मंद पड़ने लगी, लेकिन जल्द ही मैं इस स्थिति से उबर गया और फिर पहले की तरह जीवन गुजारने लगा. कुछ समय बाद रह-रहकर बड़ी तेजी के साथ मुझे उलझन के दौरे पड़ने लगे. जीवन के ये गतिरोध बार-बार मेरे सामने वही सवाल लाकर रख देते थे कि क्यों? और किसलिए?

इस तरह कई वर्षों तक लियो टॉलस्टॉय अंतर्द्वंद्व एवं अपार उलझनों से गुजरते रहे. जब वह जंगल जाया करते थे तो अपनी बंदूक छोड़कर जाया करते थे उन्हें भय था कि कहीं वह खुद को गोली न मार लें. इसी तरह जब वह घर में रहते थे तो खुद को अकेला नहीं छोड़ते थे उन्हें इस बात का भी भय था कि कहीं वह खुद को अकेला पाकर फांसी न लगा लें.

आखिर लियो टॉलस्टॉय क्यों इतने उलझनों एवं अंतर्द्वंद्वों से गुज़र रहे थे? जिस लियो टॉलस्टॉय के अहिंसक प्रतिकार के सिद्धांत को अपनाकर गांधी जी ने हिंदुस्तान में स्वतंत्रता संग्राम में अपना अहम योगदान दिया. जिस लियो टॉलस्टॉय के लेखन से रूस के ज़ार परेशान एवं नागरिक आंदोलित हो गए थे. आखिर उस लियो टॉलस्टॉय को किस बात का भय, पीड़ा और पश्चाताप था? आखिर लियो टॉलस्टॉय के समक्ष क्यों? और किसलिए? का प्रश्न किस परिपेक्ष्य में खड़ा हुआ?

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