गौतम बुद्ध: एक ऐसा मानव जो भागा, ठहरा और शून्य हो गया!

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बुद्ध और ईश्वर

जर्मनी के महान दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे का एक कथन है कि “हर गहरा विचारक गलत समझे जाने की तुलना में समझने से ज्यादा डरता है.” राजकुमार सिद्धार्थ के रूपांतरित होकर गौतम बुद्ध हो जाने से विश्व में दो बातें घटित हुईं. पहली यह कि विश्व को एक भगवान मिला और दूसरी यह कि घृणित एवं अप्राकृतिक समझे जाने वाले वह मानवीय मूल्य जिन्हें नज़रंदाज़ किया जा सकता है, परंतु नकारा नहीं जा सकता, उन्हें वास्तविकता का द्योतक एवं व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण हिस्सा मानकर उन पर विजय पाने का संश्लेषित विचार उद्घाटित हुआ.

हालांकि विश्व को बुद्ध को एक भगवान के रूप में आत्मसात करने में अधिक सहजता हुई क्योंकि भगवान के रूप में एक विचार की सहजता में नैतिकता का पोषण करना आसान होता है और इसके साथ ही उनमें मात्र विचार और उसके परिणामों को रोपित करने में भी बेहद ही आसानी होती है. चूंकि यह प्रक्रिया अपने शुरुआत से लेकर अंत तक सिर्फ एक अलौकिक विचार को लेकर चलती है इसलिए इसमें ईश्वरीय कल्पना के प्रस्फुटन से एक आलोक का निर्माण तो होता है, लेकिन इससे मानव और मानवीय मूल्यों के विस्तार रूप स्वयं बुद्ध भी नदारद हो जाते हैं. इसलिए स्वयं गौतम बुद्ध ने यह कहा है कि “मैं कोई ईश्वर नहीं हूँ बल्कि एक मानव ही हूँ और इससे अधिक कुछ भी नहीं हूँ.”

संसार में ईश्वर को एक रोशनी की किरण के रूप में देखा एवं सूचित किया जाता है जिसकी ओर मानव आकर्षित होता है. हालांकि इस रोशनी की पुंज का चकाचौंध इतना तीव्र होता है कि रोशनी के नीचे का अंधेरा न ही मानव देख पाता है और न ही उस पर विचार करने का प्रयत्न करता है. अस्तु बुद्ध रोशनी के पुंज के नीचे का वह अंधेरा हैं जो उन्हें मानव बनाता है और लगातार दीपक बनने के लिए प्रेरित करता है. इसलिए बुद्ध ने कहा है कि “अपना दीपक स्वयं बनो.”

परंतु रोशनी का पुंज का विचार जितना अव्यवहारिक मालूम पड़ता है उससे कहीं अधिक रोशनी तले अंधेरा मानवीय और व्यवहारिक जान पड़ता है. इसी विचार और सादृश्यता के क्रम में दुःख, पीड़ा, वियोग, विरह, ईष्या, द्वेष, अहम, आक्रोश और लिप्सा के भाव के समकक्ष प्रेम, करुणा, योग, खुशी, हर्ष, एकरूपता, शीलता और दया का भाव समान रूप से प्रत्येक व्यक्ति के भीतर मौजूद होता है.

लेकिन ईश्वरीय भाव और एक दिव्य मानवता का अनुकरण व्यक्तिपरक को उसके अच्छे भावों को लेकर जीवन में आगे बढ़ने का विचार और मार्ग तो देता है लेकिन इस क्रम में दृढ़ता नहीं आ पाती है जिससे मनुष्य अन्तोगत्वा असफलता के लिए जिसके क्रम में सर्वप्रथम दुःख दृष्टिगोचर होता है ईश्वर को कोसता है. इस स्थिति में मनुष्य न ही जीवन के प्रयोगों को लेकर खुद पर निर्भर होता है और न ही उन प्रयोगों से होने वाले परिणामों को लेकर खुद के प्रति जिम्मेदार होता है.

कुलमिलाकर व्यक्तिपरक अवधारणा में ईश्वर प्रेरक और अनुफल दोनों के लिए जब जिम्मेदार होने लगते हैं तो इस स्थिति में एक मनुष्य की भूमिका नदारद हो जाती है और ऐसे में मनुष्य दुःख, पीड़ा, दर्द, वियोग, असफलता और आक्रोश के भावों से गुज़रे लगता है. इसके फलस्वरूप उक्त व्यक्ति को लगता है कि दुःख, दर्द, पीड़ा, आक्रोश और लिप्सा उसके कार्यों के अनुरूप व्यवहार नहीं करते बल्कि यह ईश्वर के द्वारा किये गए अत्याचार हैं जो उसके अव्यवहारिक कार्यों के फलस्वरूप उसे भोगने पड़ रहे हैं. इस स्थिति में भी मानव जिम्मेदारी से भागता है और ईश्वर पुंज में खुशी, हर्ष, प्रेम, आनंद और योग की तलाश करता है जबकि सही स्थिति यह बनती है कि उसकी तलाश स्वयं में ही होनी चाहिए. एक व्यक्ति सर्वदा खुद में ही खो सकता है और खुद में ही तलाश सकता है. सभी घटनाएं, भावनाएं और क्रियाएं स्वयं में ही घटित होती हैं.

बुद्ध, इच्छाएं और इच्छाशक्ति

प्रत्येक मनुष्य इच्छा और इच्छा करने की मानवीय शक्ति के साथ पैदा होता है. इच्छा और व्यक्ति व्यवहार करने के क्रम में जीवन को सामाजिक अनुबन्धों एवं सम्बन्धों से सामंजस्य स्थापित करने के लिए भिन्न भिन्न इच्छाएं पैदा करता है. मसलन एक बच्चा आमोद प्रमोद की दृष्टि से खिलौने के लिए इच्छा प्रकट करता है, एक वयस्क आमोद प्रमोद के लिए भ्रमण करने की इच्छा प्रकट करता है, एक वृद्ध ईश्वरीय अनुकम्पा हेतु तीर्थ, हज इत्यादि की इच्छा प्रकट करता है.

यह एक मनुष्य की वह इच्छाएं हैं जो उनके जीवन के चरणों में सामान्य रूप से उत्पन्न होती हैं. हालांकि इन इच्छाओं के पूर्ण होने से जिस प्रकार खुशी, हर्ष और आनंद का भाव उत्पन्न होता है उसी के समकक्ष इन इच्छाओं के पूर्ण न होने पर दुःख, पीड़ा और रुदन का भाव उत्पन्न होता है. अगर इस पूरी प्रक्रिया को गहराई से देखा जाए तो इच्छाओं के उत्पन्न होने से लेकर उनके पूर्ण या अपूर्ण होने में पूरी तरह से व्यक्तिपरक की अवधारणा कार्य करती है.

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इच्छाएं व्यक्ति के भीतर ही उत्पन्न हुईं हैं और पूर्ण होने पर खुशी, हर्ष और आनंद का भाव भी व्यक्ति के भीतर ही उत्पन्न हुआ है. इसी के साथ इच्छाओं के अपूर्ण होने पर भी दुःख, पीड़ा और रुदन का भाव भी व्यक्ति के भीतर ही उत्पन्न होता है.

इच्छाओं से लेकर उसके पूर्ण या अपूर्ण होने पर उत्पन्न होने वाले भाव किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का परिचायक होते हैं. बुद्ध एक लंबे अरसे से जंगल में निवास करते रहे. हालांकि जब वह निर्वाण के चौथे चरण पर थे तब भी उनके आस पास काम और आकर्षण का कोई ज़रिया न होने के बावजूद भी उनके भीतर काम और आकर्षक का भाव उत्पन्न हो रहा था. बुद्ध की यह स्थिति इस बात का सटीक प्रमाण है कि सभी भावनाएं बाहरी कारक की अनुपस्थिति में भी हमारे भीतर उत्पन्न होती रहती हैं.

बुद्ध ने इस बात और अपनी भावनाओं पर समान रूप से ध्यान दिया और इच्छा एवं इच्छाशक्ति को लेकर कहा कि “जब भी हम अपनी इच्छाओं पर काबू पाने की कोशिश करते हैं तब तब हम एक और इच्छा को जन्म देते हैं और वह इच्छा इच्छाओं पर काबू पाने की इच्छा होती है और जब जब हम इसके द्वारा अपनी इच्छाओं पर काबू नहीं पा पाते हैं तब तब हम निराशा और खीझ के भाव से गुज़रते हैं, इसलिए इच्छाशक्ति विहीन हो जाना ही इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने का एकमात्र साधन है.”

बुद्ध और मध्य मार्ग

बुद्ध के मध्य मार्ग को समझने के लिए सर्वप्रथम उस समझ को त्यागने की आवश्यकता है जिस समझ को विश्व ने अपनी अपनी सुविधानुसार बनाया और स्थापित किया हुआ है. बुद्ध का मध्य मार्ग क्या है और किस तरह के मध्य मार्ग की बात बुद्ध करते हैं उसके इतर जब हम व्यक्तिपरक अवधारणा और जनमानस के सुविधानुसार बनाये गए मध्य मार्ग को देखते हैं तो यह पता चलता है कि सही और गलत, नैतिक और अनैतिक, बुरा और अच्छा, एक दृष्टिकोण एवं अन्य दृष्टिकोण के संदर्भ में परिस्थिति, समस्या, मूल्य, व्यक्तिपरक फायदा और जनहित का ख़्याल रखते हुए मध्य मार्ग को अपनाया जाता है. अगर इसे सरलता से कहा जाए तो मध्य मार्ग यानी कि ऐसा मार्ग जिससे व्यक्तिपरक और जनमानस का नुकसान न हो बल्कि फायदे के साथ स्थिति सरल और सामंजस्य में रूपांतरित हो जाये.

हालांकि बुद्ध का मध्य मार्ग इससे बिल्कुल विपरीत है. बुद्ध का मध्य मार्ग सही और गलत, नैतिक और अनैतिक, बुरा और अच्छा, एक दृष्टिकोण एवं अन्य दृष्टिकोण के मध्य सुविधानुसार मध्य मार्ग अपनाने का नहीं बल्कि दोनों ही पहलुओं को ध्यान में रखते हुए यथोचित रूप से शून्य हो जाना है. इस स्थिति में न व्यक्तिपरक का कोई लाभ निहित है और न ही जनमानस का कल्याण.

बुद्ध का मध्य मार्ग लाभ और कल्याण को पोषित नहीं करता है बल्कि शून्यता को पाने के लिए मार्ग प्रशस्त करता है. बुद्ध के मध्य मार्ग का कभी भी यह अर्थ नहीं है कि सही और गलत, नैतिक और अनैतिक, बुरा और अच्छा, एक दृष्टिकोण एवं अन्य दृष्टिकोण के मध्य व्यक्तिपरक या जनमानस को ध्यान में रखते हुए एक मध्य मार्ग यानी कि बीच का रास्ता अपनाया जाए. इसके इतर पंचतंत्र के रचनाकार विष्णु शर्मा की दो बिल्ली और लंगूर की कहानी में समझौते का रास्ता है. परंतु समझौते को कभी भी बुद्ध के मध्य मार्ग के रूप में सत्यापित नहीं किया जा सकता है.

यहाँ मैं फिर से जर्मनी के महान दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे के कथन को कोट करना चाहूंगा कि “हर गहरा विचारक गलत समझे जाने की तुलना में समझने से ज्यादा डरता है.” कई व्याख्याकर्ताओं ने बुद्ध के मध्य मार्ग की सुविधा के अनुरूप व्याख्या करते हुए इसे इतना फूहड़ बना दिया है कि विचारों की उत्तपत्ति और उसके आधार पर गहरा प्रभाव पड़ने लगा है. जिससे विचारों के विकृत होने का और मौलिकता के खतरे में पड़ने का डर उन कुछ चुनिंदा व्यक्तियों को सताने लगता है जो विचारों को पढ़ते, लिखते शोध और आत्मसात करते हैं.

बुद्ध और विचार

बुद्ध के व्यक्तित्व और विचारों का विस्तार व्यापक है. बुद्ध के विचारों का अनुसरण करते हुए, नागार्जुन (कवि नागार्जुन नहीं), राहुल सांकृत्यायन और असंग से लेकर वर्तमान समय में दलाई लामा जैसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने बुद्ध दर्शन और विचारों को आत्मसात करने से लेकर इसके विस्तार में अपनी अहम भूमिका अदा की है. जहाँ बुद्ध का दर्शन और विचार व्यापकता को रेखांकित करता है वहीं इसकी प्रकृति भी दो तरह से कार्य करती है.

बुद्ध के विचारों की पहली प्रकृति वह प्रकृति है जो उनोन्मुखी है अर्थात बाहरी दुनिया में अभिगमन करती है. जिन विचारों को दुनिया पढ़ती, लिखती, रूपांतरित, वाचन और आत्मसात करती है. जिन विचारों को पढ़ने, देखने, सुनने और समझने से यह तय किया जाता है कि यह बुद्ध के अनमोल विचार हैं.

इन विचारों के अर्थों और परिदृश्य से बुद्ध के व्यक्तित्व को समझा जाता है और यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि बुद्ध के व्यक्तित्व की परिधि में किन किन विचारों का समावेश है और किन किन विचारों को आत्मसात करने से जीवन में बुद्ध की प्रवृत्ति को व्यवहारिक रूप में लाया जा सकता है.

चूंकि यह विचार बाहरी दुनिया में अभिगमन करते हैं इसलिए इनके प्रभाव और आलोक में आकर्षण तथा रोचकता का भाव कायम रहता है. वस्तुतः बुद्ध भी अपने बाहरी विचारों के अनुरूप एक हिस्से में विभाजित हो जाते हैं और उनका दूसरा हिस्सा विचारों के दूसरे क्रम जो उनके भीतर उत्तपन्न होते रहते हैं उसमें छूट जाते हैं.

वहीं दूसरी प्रकृति में बुद्ध विचारों के उधेड़बुन, सृजन और परिपक्वता के आंतरिक एवं गोपनीय प्रक्रिया से गुज़रते हैं. बुद्ध के आंतरिक विचारों के प्रभावों को लेकर जब हम बात करते हैं तो यह आभास होता है कि बुद्ध के आंतरिक विचारों के प्रभाव बाहरी दुनिया पर प्रत्यक्ष रूप से नहीं पड़ते हैं बल्कि स्वयं बुद्ध के व्यक्तित्व पर यह प्रभाव पड़ने के नियोजन में बाहरी दुनिया को लेश मात्र प्रभावित करते हैं. हालांकि बुद्ध के आंतरिक विचारों का जो महत्व है वह बुद्ध के बाहरी विचारों के महत्व से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. इसके मुख्य रूप से दो कारण हैं जो कुछ इस प्रकार से हैं

{पहला कारण}

बुद्ध या फिर किसी भी व्यक्ति के बाहरी विचार स्थापना एवं अनुसरण की दृष्टि से जनमानस के लिए एक कथोपकथन के रूप में परिवर्तनशीलता की परिघटना से महत्वपूर्ण होते हैं जिसमें यथोचित परिवर्तन या रूपांतरण अल्पगामी दृष्टिकोण से सम्भव नहीं होता है बल्कि इसके रूपांतरण और परिवर्तन में दीर्घकालिक यथास्थिति कार्य करती है. लिहाजा आंतरिक विचारों की प्रवृति इसके बिल्कुल विपरीत होती है जिसमें परिवर्तन एवं रूपांतरण से लेकर विचारों की नवीनता और सृजनशीलता फौरी तौर पर सम्भव होता है. जिसके कारण फिर चाहे बुद्ध हों या अन्य कोई व्यक्ति उक्त विचारों से प्रभावित होते रहते हैं.

{दूसरा कारण}

विचारों के बनने और स्थापित होने में बुद्ध या फिर किसी भी व्यक्ति की आंतरिक ऊर्जा कार्य करती है और इस घटनाक्रम में समय चक्र एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. बुद्ध ने जब घर का त्याग किया तो उस समय बुद्ध के विचारों में परिपक्वता नहीं थी. फिर जब जंगल में उन्होंने सात वर्षों तक तपस्या की तब बुद्ध के विचार परिपक्व हो गए थे लेकिन व्यवहारिक नहीं थे और न ही उन विचारों का स्थापत्य जनमानस में हुआ था.

इसके बाद जब बुद्ध निर्वाण के करीब पहुँचे तब बुद्ध के विचारों में परिपक्वता, स्थापत्य और एकरूपता का प्रस्फुटन नज़र आने लगा. हालांकि इतना सब कुछ मात्र एक या दो सालों में नहीं हुआ बल्कि एक लंबे समय की तपस्या से बुद्ध ने इन विचारों को हासिल किया था और बुद्ध की स्थिति को प्राप्त किया था. अतएव आंतरिक विचार बाहरी विचारों की मातृ स्थिति का एक अहम अंग है. अस्तु आंतरिक विचारों की बुनावट और बदलाव की स्थितियों से व्यक्तिपरक के बाहरी विचार प्रभावित नहीं होते लेकिन इसके विपरीत इस स्थिति से उक्त व्यक्ति व्यथित अवश्य होता है जैसा कि स्वयं बुद्ध हुए और इतने व्यथित हुए की विश्व को उत्कृष्ट विचारों से सुशोभित, सुसज्जित, प्रफुल्लित और अनुग्रहित कर दिया.

दो बात

बुद्ध को जो लोग ईश्वर के रूप में देखते और मानते हैं वह लोग बुद्ध को कभी समझ नहीं सकते हैं. बुद्ध को समझने, उनके पास बैठने, बातें करने और उनसे अपना सुख दुःख बांटने के लिए एक मनुष्य केवल मनुष्य होने की आवश्यकता है.

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