अपना रण
जामिया मीलिया इस्लामिया….ऐसा नहीं था कि मैंने सब पहले से तय कर रखा था कि मुझे जामिया मिल्लिया इस्लामिया में ही पढ़ना था,
लेकिन वक्त और दस्तूर कुछ ऐसे बने की पूरे देश में सबसे पहले पायदान की नेशनल यूनिवर्सिटी में पढ़ने का तजुर्बा मुझे मिल ही गया।
यूं तो पहले भी काफी कुछ सुन रखा था इस यूनिवर्सिटी के बारे में,
मीडिया के हवाले से कहा जाता था की यहां वैचारिक और सांप्रदायिक ताकतों का वर्चस्व है,
यहां देश को तोड़ने की साजिश रची जाती है,
यहां धार्मिक चरमपंथ को हवा दी जाती है,
लेकिन कत्थई मेहराब की बनी एंट्रेंस गेट या शुरुआती दहलीज को लांघते ही मेरे मन के सारे वहम दूर हो गए।
इस बड़े से कैंपस में जहां हर जाति, धर्म और महजब के लोग साथ–साथ तालीम पाते हैं वहां किसी एक विचार का बोल बाला कैसे हो सकता है।
जो यूनिवर्सिटी(जामिया मीलिया इस्लामिया) खुद देश के आजाद होने से पहले अस्तित्व में रही है, वो खुद देश की संप्रभुता पर खतरा कैसे हो सकती है।
मुझे आखिर में महसूस हुआ की कुछ मीडिया घरानों की बातें और चंद अंजान लोगों की सोच की वजह से आम लोग किस गुमान में जीते हैं।
मुझे आखिर में महसूस हुआ की कुछ मीडिया घरानों की बातें और चंद अंजान लोगों की सोच की वजह से आम लोग किस गुमान में जीते हैं।
बहरहाल मैं मीडिया छात्रा हूं और इसी नाते मैंने तो तय कर लिया है कि कम से कम मैं तो खबरों के नाम पर फरेब नहीं परोसूंगी,
और इस(जामिया मीलिया इस्लामिया) कैंपस की चारदीवारी के भीतर जो भी सीखा है उसे अपना फर्ज मानते हुए हमेशा सच के हक़ में वकालत करूंगी।
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