लौ
एक खाली गोद ,और एक सामाजिक धब्बा,क्यों बनती हैं वो अकेली इसदुर्भाग्य का हिस्सा?? कुछ मिचलन और उबकाई ,मानो कुछ आशाएं दे जाती हैं। फिर तेज धडकने,उम्मीदों से चमकती आंखें,भीगी…
आइये कुछ नया करते हैं
एक खाली गोद ,और एक सामाजिक धब्बा,क्यों बनती हैं वो अकेली इसदुर्भाग्य का हिस्सा?? कुछ मिचलन और उबकाई ,मानो कुछ आशाएं दे जाती हैं। फिर तेज धडकने,उम्मीदों से चमकती आंखें,भीगी…
यह सोच कर कभी -कभी मेरी स्त्रीत्व भी शरमा जाती है कि, बिना कुछ सोचे बिना कुछ समझे… अपनी ही जाति के लिए हमारी उंगलियां… कैसे उठ जाती हैं? हां…
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