हिन्द स्वराज

नाम:- हिन्द स्वराज
लेखक:- मोहनदास करमचंद गांधी
प्रकाशक:- प्रभात पेपरबैक्स

हिन्द स्वराज

हिन्द स्वराज…इस पुस्तक को पहली बार कॉलेज के दिनों में दूसरे सेमेस्टर में पढ़ा था, तब इस पुस्तक को लेकर मेरे विचार या इस पुस्तक को पढ़कर मैं क्या समझता हूँ; लिहाजा मेरे विचार गांधी के पक्ष में थे। हालांकि अब इस पुस्तक को फिर से पढ़ने के बाद मेरा यह विचार बन रहा है कि गांधी जी कहीं कहीं बेहद ही बचकानी बात करते हैं।

हिन्द स्वराज पुस्तक में गांधी का रेल और ईश्वर को लेकर जो नज़रिया और विचार है वह बेहद बचकाना है। मसलन गांधी कहते हैं कि रेल की तीव्रता से मनुष्य की गतिविधियों में भी तीव्रता आई है, जिसके कारण मनुष्य कौतूहल और उतावला हुआ है।

हालांकि यह विचार गांधी के अंग्रेजों को लेकर प्रकट किए गए विचारों से विरोधाभास प्रकट करता है कि हिंदुस्तान को अंग्रेजों से कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए, बल्कि अंग्रेजों की नीतियों और उनकी व्यवस्था से दिक्कत होनी चाहिए।

इसी तर्ज पर यह भी कहा जा सकता है कि रेलवे से हिंदुस्तानियों में कौतूहल और उतावलापन नहीं आना चाहिए, बल्कि रेलवे के उपयोग और मनुष्य की नैतिकता पर दृष्टिपात करना चाहिए।

इसके उपरांत गांधी यह विचार रखते हैं कि रेल एक तूफानी साधन है और इसके उपयोग से मनुष्य भगवान को भूल गया है। गांधी का यह विचार इतना बचकाना है कि यह इस तथ्य का समर्थन करता है कि मनुष्य का ईश्वर के प्रति जो प्रेम और आस्था है, वह दुनियावी वस्तुओं से डगमगा सकता है। इसके साथ ही इस पुस्तक में गांधी कहते हैं कि मनुष्य को अक्ल इसलिए दी गई है कि उसकी मदद से वह भगवान को पहचाने, पर मनुष्य ने अक्ल का उपयोग भगवान को भूलने में किया है।

गांधी का यह विचार इस विचार को धूमिल करता है कि मनुष्य के भीतर आत्मा है और वह आत्मा परमात्मा यानी कि ईश्वर का अंश है, वस्तुतः जब आत्मा परमात्मा का अंश है तो उसे अपने परम अंश को पहचानने की क्या आवश्यकता है? और अगर मनुष्य का लक्ष्य मात्र यही है कि वह ईश्वर को पहचाने और उनमें विलीन हो जाए तो उसे परमात्मा से निकालकर आत्मा में रूपांतरित करके मनुष्य रूप देने का क्या प्रयोजन है?

और जब मनुष्य अक्ल का उपयोग करके ऐसी वस्तुएं बना सकता है जो उसे ईश्वर से दूर ले जाये तो ऐसे में कौन ईश्वर मनुष्य को अक्ल देने का जोखिम उठाएगा? यह तो अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारने वाली बात हो गई।(हिन्द स्वराज.)

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और वह समाज से समन्वय स्थापित करते हुए एक दूसरे का सहयोग करने की प्रक्रिया द्वारा अपने जीवनयापन की वस्तुओं को हासिल करता है। इसके उपरांत वह अपनी बौद्धिकता का उपयोग करते हुए अपने जीवन को आरामदायक बनाने के लिए नित्य नए आविष्कार करता है। इस पूरी प्रक्रिया में मनुष्य अपने श्रमबल, मनोबल और बौद्धिकबल का उपयोग करता है।

हालांकि मनुष्य यह सब इसलिए भी करता है, क्योंकि उसे ऐसा करने में आनंद की अनुभूति होती है जो कि मनोवैज्ञानिक रूप से मानव के मनोविज्ञान का एक हिस्सा है, लेकिन चार्ल्स डार्विन की सरवाइव ऑफ दी फिटेस्ट की थ्योरी को देखें तो मनुष्य ऐसा इसलिए भी करता है, क्योंकि अगर वह ऐसा नहीं करेगा तो वह मारा जाएगा।

उदाहरण के तौर पर देखें तो अगर हिंदुस्तान के किसी एक हिस्से में भीषण अकाल पड़ जाए और उस क्षेत्र के निवासी भूख से तड़पकर मरने लगें, ऐसे में रेलवे के उपयोग से उन निवासियों तक रसद को तीव्रता से पहुँचाया जा सकता है। जिससे लाखों लोगों की जान बच सकती है।

रेलवे और ईश्वर को लेकर गांधी के जो विचार हैं, अवश्य मुझे वे बचकाने और अतार्किक प्रतीत होते हैं, लेकिन हिन्द स्वराज्य पुस्तक में निहित अहिंसा, हिन्दू और मुस्लिम, गौरक्षा एवं वकीलों को लेकर गांधी के विचार मुझे बेहद प्रीतिकर लगते हैं; उसमें भी खासकर अहिंसा और प्रेम के विचार।

गांधी टॉलस्टॉय से प्रभावित होकर अहिंसा और प्रेम का जो विचार रखते हैं, वे विचार मानव के मनोविज्ञान और उसकी मानवीय संवेदनाओं को उजागर करते हैं। मानव का मनोउत्पाद उसकी सकारात्मक विकास में सहायक होता है, ऐसे में वह क्रिया की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप हिंसक हो सकता है, लेकिन वह उसका मूल सत्व नहीं है, अस्तु अंततः वह उस प्रक्रिया को लेकर द्वंद्व से गुजरता रहता है।

इसलिए कोई भी मनुष्य क्यों न हो अंतिम चुनाव उसका अहिंसा और प्रेम ही होता है और अगर उसका अंतिम चुनाव प्रेम और अंहिसा नहीं है यानी कि वह अभी भी आंतरिक द्वंद्व से गुजर रहा है और उसका अंतिम चुनाव शेष है।

हिन्दू मुस्लिम को लेकर गांधी जिस सौहार्द और भाईचारे की बात करते हैं, वह धार्मिक निचोड़ को रेखांकित करता है। अस्तु हिन्दू और मुस्लिम धर्म के बंटवारे के साथ जिस सत्य की खोज कर रहे हैं, वह सत्य दोनों के लिए ही एक समान है, इसमें फ़र्क महज़ इतना है कि उनके रास्ते अलग हैं, उसकी परिस्थितियां अलग है और उनके विचार भी अलग हैं। इसके अलावा जब गांधी गौरक्षा की बात करते हैं तो वह उस स्थिति को प्रकट करने की कोशिश

करते हैं, जिसमें रक्षा की जरूरत तभी महसूस होती है, जब खतरे की आकांक्षा या गुंजाइश होती है। अस्तु इसके साथ ही हम रक्षा करना तो शुरू कर देते हैं, लेकिन खतरे पर विचार करते हुए उसे खत्म करने की कवायद को नजर-अंदाज करने लगते हैं।

वकीलों को लेकर गांधी के जो विचार हैं, अगर उन विचारों में मानव की मनोविज्ञान की विसंगतियों को शामिल कर लिया जाए तो गांधी कहीं हद तक गलत सिद्ध हो सकते हैं, लेकिन यह विसंगतियां बहुत थोथी होंगी, क्योंकि यहां पेशा एक अहम पहलू के रूप में दृष्टिगत हो जाता है, जिसको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।

इसलिए जब गांधी यह कहते हैं कि वकील किसी झड़ने को सुलझाने से कहीं अधिक इस बात पर ध्यान देते हैं कि वह अपने मुवक्किल को कैसे बचाएं, इस स्थिति में झगड़े को मूल रूप से खत्म करते हुए यथोचित न्याय की गुंजाइश लगभग खत्म हो जाती है। क्योंकि अगर वह ऐसा नहीं करेंगे तो उनकी जेबें खाली रह जायेगी। (हिन्द स्वराज)

गांधी के इस विचार को इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि एक कसाई यह कभी नहीं चाहेगा कि लोग मांस खाना बंद कर दें। हालांकि जब वह मवेशियों को काटता होगा तब मानवीय संवेदना और मनुष्य के मनोविज्ञान के फलस्वरूप उसके भीतर अंतर्द्वंद्व अवश्य उतपन्न होता होगा, लेकिन पेशा यानी कि भूख का प्रश्न अंतर्द्वंद्व से बड़ा है, इसलिए वह इस अंतर्द्वंद्व से रोज गुजरेगा, पर कभी यह नहीं कहेगा कि जीव हत्या पाप है।(हिन्द स्वराज)

इस पुस्तक हिन्द स्वराज में गांधी जिस हिन्द स्वराज की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं, वह हिन्द स्वराज किसी गाँव, कस्बे, समुदाय या अंचल में फलफूल सकता है। क्योंकि छोटे स्तर पर सामाजिक और व्यक्तिगत मनोवैज्ञानिक परिस्थितियां नगण्य होती हैं और अगर होती भी हैं तो बेहद ही सूक्ष्म।

इसके अलावा गांधी का स्वराज व्यक्तिगत हृदयपरिवर्तन या मानवीय गुणों की जमीनी स्तर पर उपयोगिता को बेशक रेखांकित करता है, लेकिन इसके साथ ही यह सामूहिक हृदयपरिवर्तन और मानवीय गुणों की विशिष्टता पर भी बल देता है; जिसे अमूमन यूटोपिया की संज्ञा दी जाती है। कुलमिलाकर देखा जाए तो हिन्द स्वराज पुस्तक में गांधी ने कुछ वर्षों बाद जिस तरह एक खास शब्द और एक सूक्ष्म परिस्थिति को लेकर अपने विचार बदलें हैं, कुछ वर्षों के उपरांत अवश्य गांधी इस पुस्तक में लिखित अपने कई विचारों में बदलाव करते।

हिन्द स्वराज पुस्तक को पढ़कर हम गांधी के विचारों से रूबरू होते हुए स्वाधीनता से पूर्व और उसके उपरांत की भिन्न भिन्न परिस्थितियों के बारे में तार्किकता और विशेषरूप से यथोचित बौद्धिकता के साथ चिंतन कर सकते हैं। इसके अलावा यह पुस्तक विचारों के संश्लेषण में भी बेहद मददगार साबित होती है, क्योंकि इस पुस्तक को गांधी ने संवाद के रूप में लिखा है, जो सम्भवतः प्लेटो के संवादों से प्रभावित जान पड़ता है।

हालांकि हिन्द स्वराज पुस्तक में सबसे अहम बात यह है कि गांधी संवाद के रूप में विचारों को प्रस्तुत करते हुए कहीं भी उग्र या व्याकुल प्रतीत नहीं होते हैं। इस पुस्तक को युवाओं को अवश्य पढ़ना और इसको लेकर विचार करना चाहिए।

APNARAN TUMBLR

VISHEK GOUR

READ MORE

By Vishek

Writer, Translator

Copy Protected by Chetan's WP-Copyprotect.