साये में धूप

नाम:- साये में धूप
लेखक:- दुष्यंत कुमार
प्रकाशक:- राधाकृष्ण प्रकाशन
तिथि:- 1 जनवरी 2008
विधा:- ग़ज़ल

“कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए । कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए । जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा । बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए ।” दो-दो मिसरों के यह दो शेर आधुनिक काल के कालजयी कवि, ग़ज़लकार एवं कथाकार दुष्यंत कुमार की कालजयी रचना “साये में धूप” में उद्धरित हैं.

दुष्यंत कुमार का जन्म उत्तर प्रदेश के बिजनौर जनपद की तहसील नजीबाबाद के ग्राम राजपुर नवादा में हुआ था. यूं तो दुष्यंत कुमार कवि, कथाकार और ग़ज़लकार हैं तथा उन्होंने कथा, कविता और ग़ज़ल विधा में अनेकों रचनाएं की हैं, पर सभी विधाओं में वह एक ग़ज़लकार के रूप में अपनी रचना “साये में धूप” के लिए सबसे अधिक लोकप्रिय हुए. जिसके फलस्वरूप बाद में “साये में धूप” ग़ज़ल विधा की एक कालजयी रचना की श्रेणी में सम्मिलित हो गई.

जब मैं “साये में धूप” ग़ज़ल संग्रह का पाठन कर रहा था. और जैसे ही मैंने “हो गई है पीर पर्वत सी पिघली चाहिए” ग़ज़ल को पढ़ना शुरू किया वैसे ही मुझे अपने विद्यालय का वह दिन याद आ गया जब मैं ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ता था और एक दिन विद्यालय में कविता वाचन का आयोजन किया गया था.

उस समय कविताओं और कवियों से मैं पहली दफ़े रूबरू हो रहा था. रूबरू होने की इस श्रृंखला में मेरे सामने दुष्यंत कुमार थे और उनकी ग़ज़ल “हो गई है पीर पर्वत सी पिघलती चाहिए” थी. कविता वाचन का क्षण आया और मैंने डरे और सहमे हुए इस ग़ज़ल का वाचन किया. वाचन कैसा हुआ यह मुझे याद नहीं लेकिन आज एक अरसे बाद दुष्यंत कुमार को पढ़कर वह स्मृतियां अश्रुभृत हो गईं.

आधुनिक काल में दुष्यंत कुमार एक बेहद महत्वपूर्ण कवि, कथाकार एवं ग़ज़लकार हैं. दुष्यंत कुमार की कविताओं एवं ग़ज़लों में सड़क से संसद तक की गूंज, आवारा और मौजुआ व्यक्तित्व, एकांत एवं दुःख में घोर विलाप के साथ ही आशावाद का मिश्रण मौजूद है. वह जब लिखते हैं कि “हो गई है पीर पर्वत सी” तब यह बतलाते हैं कि दुःख विशाल हो चुका है. फिर जब वह इसी पंक्ति को विस्तार देते हैं और लिखते हैं कि “पिघलनी चाहिए” तब वह दुःख में आशावाद का नज़रिया भी देते हैं.

दुष्यंत कुमार की कालजयी रचना “साये में धूप” को एक पुस्तक की शक्ल अख्तियार करने में कई खूबसूरत मोड़ से होकर गुज़रना पड़ा. जैसा कि दुष्यंत कुमार इस रचना की भूमिका में लिखते हैं कि “ग़ज़ल उर्दू भाषा की विधा है सो जब ग़ज़ल की विधा में लिखा जाए तो उसमें उर्दू के अल्फ़ाज़ होने बेहद आवश्यक हैं पर जब मैं साये में धूप की रचना कर रहा था तब मेरे कई उर्दूभाषी मित्रों ने कहा कि इसमें उर्दू के अल्फ़ाज़ नहीं है. तब मैंने उर्दू की ग़ज़ल विधा में हिंदी के शब्दों की खूबसूरती को बयां करते हुए उर्दू के अल्फ़ाज़ों से खुद का जी छुड़ा लिया और साये में धूप ग़ज़ल संग्रह में हिंदी के शब्दों का प्रयोग किया.”

इसी क्रम में समय समय पर “साये में धूप” ग़ज़ल संग्रह की कुछेक ग़ज़लें पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं थीं. और जब दुष्यंत कुमार के करीबी एवं उनके दोस्त उनकी ग़ज़लों को सराहते तो दुष्यंत कुमार का हौसला अफजाई होता और वह निरन्तर लिखते रहने के लिए प्रेरित होते रहते.

बीस खूबसूरत, मर्मस्पर्शी, हृदयस्पर्शी एवं झकझोर देने वाली ग़ज़लों के संग्रह “साये में धूप” को एक नहीं अपितु कई मर्तबा पढ़ा जाना चाहिए. यह ग़ज़ल संग्रह आधुनिक काल की बेहद महत्वपूर्ण रचनाओं में से एक है.

~विशेक गौर

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