उत्तर प्रदेश में होने जा रहे विधान परिषद के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने दानिश आज़ाद अंसारी को प्रत्याशी बनाया है। यह नाम मार्च 2022 में पहली बार चर्चा में आया, जब भाजपा आलाकमान ने दानिश आज़ाद अंसारी का नाम शपथ लेने वाले मंत्रियों को सूची में शामिल किया। इसके बाद से एक बार फिर से पसमांदा मुस्लिम समाज चर्चा में आ गया है। पहली बार ऐसा हो रहा है कि केंद्र और देश के बड़े-बड़े राज्यों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी सबका साथ, सबका विकास और सबका प्रयास के अपने नारे को राजनैतिक रूप से भी अमली जामा पहनाते हुए मुसलमानो में उस वर्ग को भागीदार बना रही है, जिसका तथाकथित सेक्यूलर दलों ने हमेशा दोहन किया है।


तक़रीबन ढ़ाई दशक से पसमांदा लफ्ज़ भारतीय राजनीति की चर्चाओं में रहा है। पसमांदा एक उर्दू–फारसी का शब्द है जिसके मायने छूट जाने के हैँ!


यह लफ्ज़ भारतीय मुस्लिम के उस तबके के लिये प्रयोग होता है जो राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक और विकास की दौड़ में पिछड़ गया। मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करने वाले कथित सेक्युलर पार्टियों ने समाज के इस वर्ग को न तो राजनीतिक भागीदारी दी, और न ही उनके विकास के लिये कोई ठोस कदम उठाए। देश के मुसलमानों में पसमांदा मुस्लिमों की आबादी तक़रीबन 90 प्रतिशत है, लेकिन राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षणिक तौर पर यही तबका सबसे ज्यादा पिछड़ा हुआ है।

अब सवाल उठता है कि इसका ज़िम्मेदार कौन है? इसका सीधा सा जवाब है इसकी ज़िम्मेदार वे कथित सेक्युलर पार्टियां रही हैं, जो मुसलमानों को भाजपा को ‘डर’ दिखाकर उनका एक मुश्त वोट लेती रहीं उनका एक ही मूल मंत्र रहा की दबे कुचले और अति पिछड़े मुसलमानों को जो की वास्तव में मूल रूप से भारतीय हैँ उनको भाजपा का डंडा दिखाओ और तथाकथित सेक्युलर जमातों का झंडा थमाओ और उनका वोट हासिल करो।

ज़ाहिर है उस वोट में ज्यादातर वोट पसमांदा मुस्लिम समाज का ही था, लेकिन उसके बदले में पसमांदा को क्या मिला? न तो आबादी के अनुपात से भागीदारी मिली? और न ही सामाजिक उत्थान में कोई खास बदलाव आया। राजनैतिक उपेक्षा का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि आज तक समाजवादी पार्टी ने जितने भी मुस्लिम सदस्य भेजे हैं, उनमें से पसमांदा समाज से संबंध रखने वाला एक भी मुस्लिम नहीं है। सवाल है कि समाजवाद और सामाजिक न्याय के झंडाबरदार बने घूमने वाले ‘नेता’ जी ने ऐसे पसमांदा की उपेक्षा करके सामाजिक न्याय की कौनसी परिभाषा को चरितार्थ किया है?

दरअस्ल ये कथित सेक्युलर दल चाहते हैं, कि मुस्लिम सिर्फ एक वोट बैंक बने रहे, ताकि उनका एक मुश्त वोट इन पार्टियों को मिलता रहे। लेकिन उत्तर प्रदेश की भाजपा नेतृत्व वाली योगी सरकार ने 2017-2022 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दिशा निर्देश पर अल्पसंख्यक आयोग, मदरसा शिक्षा परिषद, उर्दू अकादमी जैसी महत्तवपूर्ण संस्थाओं पसमांदा समाज से ताअल्लुक रखने वाले लोगों को सर्वे सर्वा बनाया और अब सरकार में दानिश आज़ाद अंसारी को मंत्री।

ज़ाहिर है भाजपा सरकार समाज का सर्वांगीण विकास चाहती है, वह किसी एक परिवार, किसी एक जाति विशेष की बैसाखी से नहीं चल रही है। अब भले ही भाजपा के इस फैसले की आलोचना होती रहे, लेकिन इस सच को कौन झुठलाएगा कि लंबे समय से उपेक्षा का शिकार रहे पसमांदा समाज को भाजपा भागीदार बना रही है!

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आतिफ रशीद


नोट :-


लेखक भाजपा के वरिष्ठ नेता होने के साथ साथ पूर्व में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग भारत सरकार के उपाध्यक्ष व अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी कोर्ट के मेंबर और अजमेर दरगाह कमेटी के सदस्य भी रहे हैँ और मुस्लिम पसमानदाह बिरादरी गाड़ा (गद्दी) से ताल्लुक रखते हैँ!!

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One thought on “पसमांदा मुस्लिम ज़िक्र तो है लेकिन फिक्र किसे?”

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