लौ
(लौ)..एक खाली गोद ,
और एक सामाजिक धब्बा,
क्यों बनती हैं वो अकेली इस
दुर्भाग्य का हिस्सा??
कुछ मिचलन और उबकाई ,
मानो कुछ आशाएं दे जाती हैं।
फिर तेज धडकने,
उम्मीदों से चमकती आंखें,
भीगी पलकें, लाखों सवाल और
हजारों ख्याल, मन ही मन उसे झंझोरता हर विचार।
कुल की इज्ज़त, घर का चिराग,
कौन संभालेगा हमारे विचारों का सैलाब,
और न जानें क्या-क्या सभी के मन में
दफ़न है आज।
कागज़ी हकीकत कुछ और
कहती हैं, हमेशा मिचलन और उबकाई
एक सी नही होती है।
तो क्या हुआ अब भी नौ महीनों में एक चिराग़
नहीं आएगा,
उसे अपना पुरूषत्व ढहता सा नज़र आएगा,
मन ही मन ये चिंता भी खायेगी,
अपनी सोच को अपनी विचारों को अब न जानें किसपर प्रत्यारोप कर पाऊंगा।
तुम अपनी स्त्रीत्व पर शंका मत करना,
मम्ता का होना ज़रूरी है,
न कि नौ महीने उदर में पलना।
नौ महीनों में तो नहीं,
पर नौ प्रक्रियाएँ तो कर पाओगी,
चिराग नहीं, एक लौ तो घर ले आओगी।
लौ BY ANSHU
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