स्त्रीत्व….By anshu saw
यह सोच कर कभी -कभी मेरी स्त्रीत्व भी शरमा जाती है कि,
बिना कुछ सोचे बिना कुछ समझे…
अपनी ही जाति के लिए हमारी उंगलियां…
कैसे उठ जाती हैं? हां जाति से मेरा मतलब ,,,
मैं चार वर्ग नहीं बताती।पुरुष और महिला है,
मेरी नज़रे तो बस इतना ही विभाजन देख पाती हैं।
दूसरी बातों को छोड़ मैं मुद्दे पर आती हूं|
तुम बताओ क्या तुम भी कम से कम,
सुकून की रोटियां खा पाती हों? हां ,
खा लेती होगी अगर कोई तो रोटियां कमा लाता होगा,
जो ना मिले तो खु़द कमा लाओ अब इतना पढ़ना लिखना,
तो लड़कियों को आजकल हर कोई सिखाता होगा।
पर तुम्हें नाराजगी होती हैं, जब तुम्हारी ही जाति का कोई,
किसी और तौर तरीके को अपनाता हो,
चाहे वो भी सिर्फ अपनी रोटियां ही कमाता हो ,
जरा सोचो, शायद किसी ने उसके लिए कभी पसीना ना बहाया होगा,
न रोटियां दी हो न उसे कमाने लायक कुछ भी सिखाया होगा।
रही होंगी मजबूरियां कोई अपनी आबरू बेचने का ख्याल किसी को यूं तो न आया होगा|
कही सिक्ती होगी रोटियां ,
तो कभी मोहब्बत और किस्मत ने उसे आजमाया होगा।
चाहें वजह और भी रही हो,
हमारी तुम्हारी नज़रों ने अभी उन्हें कितना देख पाया होगा।
एक बात कहना मैं चाहूंगी, हूं स्त्री तो ये बतलाना चाहूंगी,
जो अगली बार अपनी वार्तालाप मे उसकी हालातो का जायजा लेना,
उससे पहले अपनी जेब टटोलना जो दे सको कुछ तो हाथ बढ़ा देना,
वरना अपनी तुच्छ सोच को अपनी जेब में छुपा लेना।
बिकने वाला हर किरदार नहीं,
कभी -कभी खरीदने वाला हकदार भी गलत होता है,
जब चीजे बिकती है तो मैं कैसे मानूं वो व्यापार गलत होता हैं।
मुझे पता है, तुम मुझे अभी कुछ और समझा दोगी,
मेरी कही इन बातों के जवाब में कई अपवाद गिनवा दोगी।
ये तो नियति है दुनिया की मैं एक कविता मे कहां, समझा पाऊंगी,
कभी ज़िंदगी में हालात बिगड़ेंगे संभलेंगे, तो तुम खुद समझ जाओगी।
स्त्री का स्त्री से रिश्ता ही अलग है,
जो ना समझें हम खुद भी, तो समाज में उनका सम्मान ….
महज़ वहम हैं।
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