सुबह स्कूल जाते हुए और स्कूल से आते हुए बस एक ही बात मन को रोमांचित कर देती थी कि दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलने जाना है। कड़ाके की ठंड हो, भीषड़ गर्मी हो या फिर पेपर का समय हो पर एक बात जो कन्फर्म थी वो था कि, क्रिकेट तो खेलने जाना ही है।
आज के वर्आतमान युग में जिस प्रकार से क्रिकेट का वर्चस्व पूरे संसार मे बढ़ता जा रहा है उसको देख कर केवल भारत या कुछ देशों को ही सेंटर में नही रखा जा सकता वरन यह तो विश्वपटल पर खेला जाने वाला खेल बन गया है।
पुराने जमाने में जब क्रिकेट की शुरुआत क्रिकेट के प्रेमियों ने की होगी तब उन्हें पता भी नहीं रहा होगा कि उस खेल का नाम क्रिकेट होने वाला है और लोगों के बीच इतना प्रिय होने वाला है। फिलहाल उस समय इस खेल को केवल रोमांच या मनोरंजन के रूप में देखा जाता था। पर जैसे-जैसे क्रिकेट की रुचि बड़ती गयी वैसे वैसे उसके संबंध में नियम भी बनाए जाने लगे।
जहाँ पहले लोग रेडियो से क्रिकेट की कमेंट्री सुनते थे वहीं आज आधुनिक दौर में रेडियो के साथ-साथ टीवी प्रसारण की मात्रा में भी वृद्धि हुई है जिसके चलते खेल में बहुत से नए बदलाव भी देखने को मिलते हैं।
कई प्रकार के कैमरे, स्कैनर , हॉक-आई , एनिमेशन, प्रोजेक्शन, स्टंप माइक आदि की मदद से खेल में एक नया रोचकपन और पैनापन आ गया है, वहीं इसके चलते कई बाध्यताएं और दबाव भी उत्पन्न हुआ पर टेकनीक ने क्रिकेट में होने वाली गलतियों को काफी हद तक कम कर दिया है।
क्रिकेट में प्रयोग होने वाली नई तकनीक
हॉक-आई
हॉक-आई वास्तव में एक कंप्यूटर विज़न टेक्निक की प्रक्रिया है, जिसका प्रयोग क्रिकेट , बैडमिंटन जैसे अन्य कई खेलों में बॉल के मूवमेंट को ट्रैक करने के लिए प्रयोग किया जाता है। इसके आगे....
स्निकोमीटर
कोविड महामारी के समय मे बेशक क्रिकेट बिना किसी क्रिकेट प्रेमी के मैदान में बिना शोर-शराबे के हो रहा हो लेकिन यह अंधेरा केवल कुछ दिनों का ही रहने वाला है। ऐसे में एक बार फिर लोग स्टेडियम में बैठ कर अपने पसंदीदा टीम को मैच खेलते देख सकेंगे। ऐसे में क्रिकेट स्टेडियम में शोर-शराबे की कोई भी कमी नही रह जाती है, लोग अपने टीम का समर्थन के लिए जोर-जोर से आवाज़ लगाते है, हूटिंग करते हैं और जश्न मनाते हैं। जिसके कारणवश अंपायर के लिए हल्की सी आवाज सुनना मुश्किल हो जाता है। इसलिए अंपायर को स्निकोमीटर या कहें ultraedge पर निर्भर होना पड़ता है।
इसका उपयोग ध्वनि व वीडियो का विश्लेषण कर यह तय करने के लिए किया जाता है कि गेंद बल्ले से लगी है या नहीं या कहीं और लगी है देखा जाता है। इसका आविष्कार एलन प्लासकेट द्वारा किया गया जो कि एक ब्रिटिश कंप्यूटर साइंटिस्ट हैं। इस टेकनीक से अंपायर को बिना किसी गलती के आउट या नॉट-आउट निर्णय देने में मदद मिलती है।
स्निकोमीटर कैसे कार्य करता है
स्निकोमीटर एक बेहद संवेदनशील मैक्रोफ़ोन होता है जो पिच पर दोनों स्टंप में लगा हुआ होता है। ये माइक्रोफोन साउंड वेव्स को रिकॉर्ड करने वाले OSCILLOSCOPE से जुड़ा होता है। इसके बाद ऑसिलोस्कोप में माइक्रोफोन द्वारा रिकार्डेड साउंड तरंगो को स्लो-मो वीडियो में चलाया जाता है और यह देखा जाता है कि बॉल का बल्ले से संपर्क हुआ या नहीं। यह टेक्निक केवल दो सतहों के बीच कॉन्टैक्ट को दर्शाता है जिन्हें देख कर अंपायर अपना आखिरी निर्णय लेते हैं।
हॉटस्पॉट
यह एक नई टेक्निक है जिसे लगभग हर मैच में प्रयोग किया जाता है। इस टेक्निक से अंपायर को यह देखने मे सहूलियत प्राप्त होती है कि गेंद बल्ले से टकराई है या नहीं। हॉटस्पॉट तकनीक को पहली बार वर्ष 2006-07 की एशेज टेस्ट प्रतियोगिता में इस्तेमाल किया गया था। हालांकि इस तकनीक को मूल रूप से एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक निकोलस बियोन द्वारा बनाया गया था जिसका प्रयोग सेना के लिए टैंक और जेट विमान पर नज़र रखने के लिए किया गया पर, इसे खेलों में भी अपनाया गया।

कई बार मैच के दौरान अंपायर के लिए यह निर्णय आसान नहीं होता कि बॉल बल्ले से टकराई है या नहीं। ऐसे में ICC द्वारा नियोजित डीआरएस का एक अभिन्न अंग के रूप में मदद ली जाती है।
यह तकनीक इंफ्रारेड कैमरे पर आधारित है जो फील्ड में लगे होते हैं। जब गेंद का बल्ले या कहीं और सम्पर्क होता है तो ये कैमरे हिट फ्रिक्शन उत्पन्न करते हैं और उसका एक नेगेटिव इमेज भी कैप्चर करते हैं। इस तकनीक को स्निकोमीटर का एक अद्यतित भाग कहा जा सकता है पर समय समय पर क्रिकेट मैचों में इन दोनों ही टेक्निक का प्रयोग किया गया है। स्निकोमीटर और हॉटस्पॉट में बस इतना ही अंतर है कि स्निकोमीटर साउंड वेव के आधार पर परिणाम देता है और हॉटस्पॉट हिट सिग्नेचर के आधार पर निर्णय देता है।
जिंग विकेट या एलईडी स्टंप्स (Led Stumps)
इस तकनीक में स्टंप्स तथा बेल्स में LED लाइट्स लगी होती है जो गेंद के टकराते ही फ़्लैश होने लगती है। रन आउट या विकेटकीपर के द्वारा स्टंप आउट के समय अंपायर के लिए निर्णय लेना आसान हो जाता है कि बेल्स स्टंप्स से गिरी है या नहीं। यह सिस्टम ऑस्ट्रेलिया के मेकैनिकल इंडस्ट्रियल डिजाइनर ब्रोंते एककैरमन ने बनाया है। यहाँ यह ध्यान रखना बहुत जरूरी है कि रन आउट या स्टंप आउट के समय एक बल्लेबाज को तभी आउट करार दिया जा सकता है जब गिल्ली पूरी तरह से हट जाए। एलईडी स्टंप्स के सेट महंगे होते हैं जिसके कारण इनका ज्यादा प्रयोग नहीं होता है पर वर्ल्ड कप, आईपीएल या स्पेशल सीरीज जैसे टूर्नामेंट में इस प्रकार के स्टंप्स का प्रयोग किया जाता है।

स्टंप को माइक्रोप्रोसेसर और कम वोल्टेज वाली बैटरी के साथ-साथ लगाया जाता है। इन बिल्ट सेंसर की मदद से यह सेकेंड के हजारवें हिस्से(1/1000) में ही डिटेक्ट कर लेता है कि कोई चीज पास आ रही है।
बॉल स्पीड या स्पीड गन
क्रिकेट में इस तकनीक का प्रयोग बॉल की स्पीड को मापने के लिए किया जाता है। इस तकनीक के सबसे पहले इस्तेमाल की बात करें टेनिस में हुआ था। यह टेकनीक डॉप्लर प्रभाव के सिद्धान्त पर कार्य करता है। इस तकनीक का आविष्कार जॉन एल. बाकर और बेन मिडलॉक ने किया था।

इसमें एक रिसीवर और ट्रांसमीटर लगा होता है। जिसे साइटस्क्रीन के पास लगाया जाता है जो सूक्ष्म तरंगो द्वारा आंकड़े प्राप्त कर के बॉल की स्पीड का मेजर करती है। क्रिकेट में इसका प्रयोग सबसे पहले 1999 में हुआ था।
सुपर स्लो-मो
क्रिकेट मैच जब आप देख रहे होते हैं तो आपने जरूर क्रिकेट मैच में रिव्यु होते देखा होगा। बल्लेबाज द्वारा खेले गए शॉट, अंपायर निर्णय तथा क्रिकेट के बारीकियों को जानने के लिए रिव्यु किया जाता है और रिप्ले या रिव्यु के लिए जिस कैमरा का प्रयोग होता है उसे स्लो-मो कैमरा कहा जाता है।
स्लो मो का प्रयोग वर्ष 2005 से रिव्यु के लिए किया जाता है। सुपर स्लो-मो कैमरा 500 फ्रेम्स प्रति सेकंड के दर से इमेज को रिकॉर्ड करता है, जबकि सामान्य कैमरा फ्रेम्स को देखा जाए तो 24 या 25 फ्रेम्स प्रति सेकंड के हिसाब से ही रिकॉर्ड करते हैं।
स्पाइडर कैम
वह भी एक समय था जब क्रिकेट मैच के दौरान बहुत कम कैमरे स्टेडियम में लगे हुए होते थे और आज का एक दौर हैं जहाँ लगभग हर एंगल से शॉट्स लिया जा रहा है। ऐसे में आज के टेक्नोलॉजी में जिन-जिन कैमरों का प्रयोग होता है उसमें से एक श्रेणी ‘स्पाइडर कैम’ भी है। यह कैमरा बहुत ही पतली केबल में जुड़कर स्टेडियम के हर कोने में लगा रहता है। यह मैच को अलग-अलग एंगल से दिखाकर प्रसारण को आकर्षक बनाता है और ब्रॉडकास्टर की जरूरतों के अनुसार होने वाली गतिविधियों को टिल्ट, ज़ूम, या फोकस करता है।
इसके पतले केबल में फाइबर ऑप्टिक केबल भी होते हैं, जो कैमरा में रिकॉर्ड होने वाली तस्वीर को प्रोडक्शन रूम तक पहुचाते हैं। इस कैमरा का सबसे पहला प्रयोग आईपीएल 2010 टूर्नामेंट के दौरान हुआ था।
स्टंप कैमरा
स्टंप कैमरा एक छोटा सा कैमरा होता है जो बीच वाले स्टंप में लगाया जाता है। यह कैमरा बल्लेबाज के बोल्ड होने या रन आउट होने के समय यूनिक तरीके से एक्शन रिप्ले दिखाता है।

क्रिकेट स्टंप में कैमरे का इस्तेमाल 1990 के दौर में हुआ था। सबसे पहले हिताची KP-D8s कैमरे का स्टंप में प्रयोग हुआ था। ये माइक्रो लेंस से 4,10,000 पिक्स वाला कलर कैमरा था। इसके बाद स्टंप्स में HD कैमरों का इस्तेमाल होने लगा।
स्टंप्स कैमरे के अलावा स्टंप के पीछे एक माइक भी होता है जो कई बार हेल्पफुल होता है। ऋषभ पंत की कमेंट्री स्टंप माइक द्वारा ही होती है जिससे वे लोगों का मनोरंजन और फील्ड में एक माहौल बना कर रखते हैं।
बॉल स्पिन आरपीएम (Ball Spin RPM)
क्रिकेट मैच में जब स्पिनर बॉलिंग करता है तो इस तकनीक का प्रयोग किया जाता है। इसके अंतर्गत बॉल के रोटेशन की स्पीड को देखा जाता है। यह दिखाता है कि बॉल पिच पर कितनी स्पिन हो रही है। बॉल को हाथ से छोड़ने के बाद बॉल कितनी स्पिन करती है, भी देखा जाता है।

पिच विज़न
बैटिंग के दौरान यह किसी खिलाड़ी के परफॉरमेंस का फीडबैक दर्शाता है। जिसकी सहायता से कोई खिलाड़ी अपने प्रदर्शन की खामियों को समझ कर उसे दूर कर सकता है।
बैट्समैन बल्लेबाजी के दौरान ऑन या ऑफ साइड से कितना रन बटोरते हैं या फिर किस एरिया में ज्यादा खेलते हैं, उस पिच विजन टेक्नोलॉजी के जरिए देखा जा सकता है।

कहने का तात्पर्य है कि यह टेक्नोलॉजी बॉलर की लाइन, लेंथ, बाउंस, फुट पोजीशन को ट्रैक करने के साथ साथ बल्लेबाज अपने शॉट सिलेक्शन, कमजोरियों को भांपने और उन्हें दूर करने का एक नक्शा प्रस्तुत करती है।
बॉलिंग मशीन (Balling Machine)
एक बॉलिंग मशीन बल्लेबाज को बल्लेबाज प्रैक्टिस में हेल्प करती है और शॉट सिलेक्शन बेहतर बनाती है क्योंकि बल्लेबाज बॉलिंग मशीन के जरिए गेंद को एक ही लाइन , लेंथ और गति से कई बार खेल सकता है।

मैजिक माइक
T-20 क्रिकेट शुरू होने के बाद इस तकनीक का इस्तेमाल ज्यादा होने लगा है। मैजिक माइक के ज़रिए खिलाड़ी मैदान से ही बॉक्स में बैठे कॉमेंटेटर्स से बात कर सकता है। कॉमेंटेटर्स खिलाड़ियों से खेल की बारीकी और उनकी रणनीति पर बात करते हैं। इसके ज़रिए क्रिकेट दर्शकों को मैदान में मौजूद खिलाड़ी की मनोस्थिति जानने का मौका मिलता है। साथ ही खेल के प्रति एक नज़रिया मिलता है। इसे टेकनीक का प्रयोग आईपीएल टूर्नामेंट के दौरान बहुत अच्छे से होता है।
क्रिकेट में आधुनिक तकनीक को गेम चेंजर कहा जा सकता है क्योकि कई बार डीआरएस जैसे अवसर पर टेक्नोलॉजी मैच के मोड़ को यानी उसके हवा के रुख को मोड़ देती है जिससे कई बार मैच टर्निंग पॉइंट की तरफ मुड़ जाता है। वास्तव में इन नई तकनीक और नियमो ने खेल को और अधिक रोचक, पारदर्शी और विश्वसनीयता से भर दिया है।आशा की जानी चाहिए इन तकनीकों और नियमों से खेल को और भी ज्यादा रोचक बनाने में मदद मिलेगी। साथ ही खेल की आत्मा मरने नही पाएगी।