
सुनो! नई दिल्ली की पुरानी मकान की तरह हो तुम
आधुनिकता की लंपट चुने,प्लास्टर, रंगों से एकदम दूर
औरों की तरह मुझे किराएदार नही बनना है तुम्हारा,
ना ही मुझे जबरन कब्जा जमाना है
मुझे पूरे मकान को अपना बनाना है ,उसे सजाना है
देखो मैंने अग्रिम में अपना छद्म पौरुष तुम्हें सौप दिया है
कह देना गोडसे से फ़िर प्रेम का गांधी लौट आया है
इस बार उसके हथियार से नही मरने वाला
वर्षों से अपने को तुम्हारे लिए बचा कर रखा है मैंने
तुम क्षितिज के पार तक मेरी चेतना की सारथी हो
तुम्हें पाने के लिए इस बार भी सत्याग्रह करूँगा
ये कोर्ट, कचहरी ,लोग सब तुम्हारे लिए ही थोड़े न हैं।।
कविता Alok kumar Mishra द्वारा लिखी गई है…
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