images2814291290870532893301976.
रानी लक्ष्मीबाई

रानी लक्ष्मीबाई 18 जून 1858 को ग्वालियर किले से थोड़ी दूर पर कोटे की सराय नामक स्थान है जहाँ पर वो अपनी मुट्ठी भर सिपाहियों के साथ अंग्रेजो से भीड़ गई घनघोर लड़ाई हुई, उनके सिपाही धीरे धीरे शहीद होते जा रहे थे, चूंकि रानी भी लड़ते वक्त घिर गई और बुरी तरह से घायल हो गई थी।

उन्होंने अपने घोड़े को लेकर कुछ साथियों के साथ वहां से निकलना चाहा, परन्तु जिस तरफ से वो निकलने की कोशिश कर रही थी सामने ही नाला था, घोड़ा उस नाले को पार करने में सक्षम नही हुआ, तब तक अंग्रेजी सिपाही उनके नजदीक आ गए, उन्हें गोली भी लगी तलवार से उनके सिर पर गहरे ज़ख्म भी लगे,किसी तरह उनके साथियों ने उन्हें बचाकर वहीं, जंगल में एक मंदिर था जहाँ ले गए, जो दर असल स्वामी श्रद्धानंद का आश्रम था जहां कुछ सन्यासी रहते थे।

उन्होंनें, रानी को पहचान लिया। अपने आखिरी समय में, रानी ने उन सन्यासियों से कहा था कि उनका शरीर फिरंगियों के हाथ नहीं लगना चाहिए।और अपने पुत्र दामोदर के विषय में बोली, कि उसे सुरक्षित रखा जाए इसके लिए उन्होंने अपने गले में एकमात्र जेवर जो कि मोतियों की माला थी निकाल कर देने की कोशिश भी की थी परंतु तब तक उनका शरीर प्राणविहीन हो चुका था।आनन फ़ानन में उनके शरीर का उसी आश्रम में दाह संस्कार कर दिया गया।परंतु इतिहास साक्षी है, इतनी छोटी उम्र जो पराक्रम रानी ने दिखलाया वो इतिहास में बहुत कम देखने को मिलता है। इसलिए उस समय रानी से युद्ध करने वाला कैप्टन ह्यूरोज़ लिखता है है उस समय के भारतीय पुरूषों में एक मर्दानी थी।

सुभद्रा कुमारी चौहान ने खूब लिखा है : खूब लड़ी मर्दानी, वो तो झांसी वाली रानी थी !

By Admin

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

Copy Protected by Chetan's WP-Copyprotect.