विकास:- विकास सर्वागीण है। यह एक प्रक्रिया है जिसकी शुरुआत परिवर्तन से होती है।

परिवर्तन:- सामाजिक , आर्थिक व राजनीतिक रूप से बदलाव या इनके रूपो में बदलाव की प्रगति परिवर्तन से है।

प्रगति:- शाब्दिक अर्थ ” आगे की ओर चलना” सकारात्मक रूप में आगे की ओर चलना। नोट:- परिवर्तन सकारात्मक और संतुलित हो तभी उसे विकास कहा जा सकता है अर्थात सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक रूप में सकारात्मक प्रगति।

नोट 02:- विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक शिक्षित वर्ग की संख्या में वृद्धि न हो।

विकास कब;- जब नीतियों का पालन समाज में कारगर ढंग से हो।

भारत मे विकास कब माना जाएगा:- जब वैज्ञानिक/विज्ञान , सामाजिक ,आर्थिक, सांस्कृतिक सभी स्तरों पर प्रगति एक समान हो तभी भारत का विकास माना जायेगा।भारत में ग्रामीण विकास महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारत एक कृषि प्रधान देश है जहाँ आधे से ज्यादा देश की आबादी कृषि में कार्यरत है, इसलिए भारत के विकास को मापते समय ग्रामीण विकास पर विशेष ध्यान रखना चाहिए)।

विलबर श्रेय ने ग्रामीण पत्रकारिता और ग्रामीण विकास को विकास की अवधारणा से जोड़ा है।

लोगों की मानसिकता बदलने में पत्रकारिता की महत्वपूर्ण भूमिका है जैसे सामाजिक संस्थाओं की भूमिका।

Newspaper:- न्यूज़पेपर का काम है कि वो कमियों को बताए तथा साथ ही ये भी बताए कि कमियां क्यों हैं, उन्हें ठीक कैसे करें, जो कि विकास पत्रकारिता का अभिन्न अंग है।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में विकास को ग्रामीण परिप्रेक्ष्य से जोड़कर , ग्रामीण अंचलों से जोड़कर देखना होगा, तभी विकास की सही संज्ञा को समझा जा सकेगा।

विकास के मानदंड

  1. मात्रा में वृद्धि
  2. कार्यक्षमता में वृद्धि
  3. आपसी सहयोग एवं तारतम्यता
  4. मानवीय स्वतंत्रता

Note:- केवल quantity को विकास नहीं कहा जा सकता है जब तक उसकी क्वालिटी का विकास न हो जाए।

विकास केवल आर्थिक वृद्धि नहीं बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक , संस्थागत एवं आर्थिक परिवर्तन का समन्वित रूप है।

विकास में शामिल हैं:-

  1. सामाजिक संवृद्धि
  2. आर्थिक संवृद्धि
  3. सांस्कृतिक संवृद्धि
  4. संस्थागत संवृद्धि

विकास=परिवर्तन+आर्थिक संवृद्धि

पिछड़ी अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए भारत के सुझाव:-

  1. संपत्ति ,विनिमय, श्रम
  2. राजनीतिक व्यवस्था, विज्ञान प्रद्योगिकी
  3. स्तरीकरण
  4. संगठनात्मक एवं संस्थागत परिवर्तन

इनमें सकारात्मक प्रगति, जब इन स्तरों पर सकारात्मक कार्य किया जाएगा तब भारत का विकास होगा तथा इसके साथ १) उत्पादन के ढंग में बदलाव २) वाणिज्यिक एवं औद्योगिक संगठनों में परिवर्तन ३) संस्थागत ढांचे में परिवर्तन का भी ध्यान रखना होगा।

विकास की शर्तें

  1. प्राकृतिक संसाधनों का सदुपयोग
  2. विकास के प्रति, निष्ठा
  3. मानवीय शक्ति एवं श्रम का समुचित उपयोग और प्रबंधन
  4. कार्यक्षमता का समन्वय एवं गतिशीलता का तालमेल
  5. आर्थिक विकास संबंधी अनुसंधान
  6. सामाजिक व्यवस्था एवं सोच में रचनात्मक दृष्टि।
  • विकास और सूचना एक दूसरे के पूरक हैं।
  • संचार विकास के लिए एक निवेश है।
  • सूचना से शिक्षित-जागरूक- समाज मे कार्यरत
  • 1953 में संयुक्त संघ ने कहा था कि विकास चाहे सामाजिक हो, आर्थिक हो या राजनैतिक हो उसमें संचार की महत्वपूर्ण भूमिका है।

विकास के सिद्धांत:- 1)विकास एक जटिल अवधारणा है। 2)किसी फिल्म का समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा? 3) समाजशास्त्री द्वारा समाज मे सांस्कृतिक आचार विचार की दृष्टि से देखा जाता है। विकास के तीन अवधारणा- 1) समाजशास्त्री विकास 2) आर्थिक विकास 3) राजनैतिक विकास

सामाजिक विकास के सिद्धान्त की अवधारणा:-

  1. सामाजिक वातावरण का सिद्धान्त
  2. उपलब्धि की आवश्यकता का सिद्धांत
  3. सामाजिक संतुलन का सिद्धान्त
  4. समानता का सिद्धान्त

1. सामाजिक वातावरण का सिद्धान्त:- जोसेफ़ शुमपितर ने अपनी बुक” theory of economic development”- 1990 में अपना यह सिद्धान्त रखा। इसके एक बुक captalism socialism and democracy-1942 में आई थी।इनके मत में आर्थिक विकास के दो तत्व हैं:-

  1. नई वस्तुओं का समावेश
  2. कार्य की नई रीति(तरीका)

जोसेफ़ सुमपिटर का मानना है कि समाज में कोई नई नीति आयी हो या नई वस्तु आयी हो। इसके अन्तर्गत उन्होंने किसी एक विशिष्ट समय,किसी एक विशिष्ट देश के सामाजिक मूल्य, वर्ग संरचना, शिक्षा व्यवस्था आदि को शामिल किया है। इसके अलावा व्यावसायिक सफलता के लिए एवं समाज मे व्यावसायिक सफलता के साथ होने वाले लाभ के अलावा अतिरिक्त सम्मान सामाजिक पुरस्कार एवं सामाजिक पुरस्कार की प्रकृति और समाज के प्रति मनोवृत्ति शामिल है।

2. उपलब्धि की आवश्यकता का सिद्धांत:- मैक क्लीलेंट की पुस्तक ” THE ACHEVING SOCIETY” में इन्होंने समाज के विकास के मनोवैज्ञानिक प्रारूप प्रस्तुत किया, जिसके अनुसार सभी प्रकार के समाज मे व्यक्तियों की एक विशेष प्रकार की मनोवैज्ञानिक विशेषता आर्थिक विकास को उत्तरदायी होती है, जिन्हें क्लीलेंट ने उपलब्धि की आवश्यकता का नाम दिया है। इस आवश्यकता के कारण ही व्यक्ति उच्चतम श्रेष्ठता को प्राप्त करता है। इसी आवश्यकता के कारण किसी समाज मे कम और किसी समाज मे अधिक प्रगति दिखाई देती है। मैक क्लीलेंट ने मनुष्य के व्यक्तित्व के अंग के रूप में तीन प्रकार की आवश्यकता का उल्लेख किया है।१) उपलब्धी की आवश्यकता २) शक्ति की आवश्यकता ३) संबंध की आवश्यकता

मैक क्लीलेंट का मानना है कि सामाजिक विकास की गति मनोवैज्ञानिक शक्तियों तथा विशेष रूप से विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं के द्वारा ही निर्धारित की जाती है।

3. सामाजिक संतुलन का सिद्धांत:- ” द अफलुवेट सोसाइटी पुस्तक” में जे.के. गलब्रेथ- 1958 में सामाजिक संतुलन का सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उनके अनुसार सामाजिक संतुलन में बने रहने के लिए न्याय पर आधारित सामाजिक व्यवस्था जरूरी है। सामाजिक संतुलन से उनका अर्थ है निजी रूप से उत्पादित की गई वस्तुओं एवम सेवाओं तथा राज्य की वस्तुओं और सेवाओं की मांग एवं पूर्ति के बीच संतोष जनक संबंध है। यह स्थिति उस समय समस्या बन जाती है जब कुछ गैर जरूरत की वस्तुओं से अधिक हो जाए।

गैलब्रेथ के अनुसार समृद्धि एवं निर्धनता के बीच विभाजन करने वाली रेखा निजी तौर पर उत्पादित की गई तथा बेची गयी वस्तुओं एवं सेवाओं को सार्वजनिक रूप से प्रदान की गई वस्तुओं से अलग करती है। निजी क्षेत्र में उत्पादित की गई और बेची गयी वस्तुएं , सार्वजनिक क्षेत्र में प्रदान की वस्तुओं और सेवाओं से न केवल अधिक होती है बल्कि निजी क्षेत्र में वस्तुओं और सेवाओं में लगी हमारी संपत्ति , सार्वजनिक क्षेत्र ,सार्वजनिक सेवाओं में बड़ी व्यवस्थाएं उत्पन्न करता है क्योंकि इन दोनों में संतुलन स्थापित करने की आवश्यकता के महत्व को ही समझा नहीं जाता । ” गैलब्रेथ के शब्द जितना अधिक समृद्ध( निजी क्षेत्रों की) उतनी ही अधिक गंदगी होगी।

4. समानता का सिद्धान्त:- इस सिद्धांत का प्रतिपादन गुनार मृदुल ने अपनी पुस्तक ” asian drama thatha challenges of world poverty” में किया है।

मृदुल का मानना है कि विकास एक अंतः संबंधित प्रक्रिया का नाम है अर्थात एक स्थिति में परिवर्तन आने से दूसरे स्थिति में परिवर्तन आना आवश्यक है।इसे उन्होंने 6 श्रेणियों में बाता है:- 1) उत्पादन एवं आय 2) उत्पादन की दशाएं 3) जीवन का स्तर 4) जीवन तथा कार्य के प्रति दृष्टिकोण 5) समस्याएं 6) नीतियां

मृदुल का मानना है कि असमानता एवं बढती हुई असमानता की प्रवृत्ति, निषेधों की जटिलता एवं विकास के अवरोधों के रूप में सामने आते हैं और इनके परिणामस्वरूप इस प्रवृत्ति के उलटने यानी विकास की गति तेज करने की शर्त के रूप में अधिक समानता उत्पन्न करने की तुरंत जरूरत है। उनके अनुसार विकासशील देशों में इस प्रकार की असमानता अधिक होने के निम्न कारण हैं:-

  • आय की असमानता की बचत एक शर्त है।
  • इन देशों में बड़ी संख्या में लोग उचित पोषाहार नहीं प्राप्त कर सकते।
  • आर्थिक असमानताओं से सामाजिक असमानता घनिष्ठ है।
  • अधिक समानता की मांग के पीछे सामाजिक न्याय की स्वीकृति पाई जाती है इसलिए विकासशील देशों में समानता का मुद्दा मुख्य होता है क्योंकि असामनता का संबंध सभी सामाजिक एवं आर्थिक संबंधों से है।

इसके आगे…विकास पत्रकारिता (सिद्धांत,मॉडल, बदलते प्रतिमान)

By Admin

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